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पंचास्तिकाय-प्रवचनसार-समयसार २९७ लोकविभाग के अन्त में दी हुई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सर्वनन्दि के प्राकृत ग्रन्थ की भाषा का परिवर्तन करके सिंहसूरि ने अपने संस्कृत लोकविभाग की रचना की। इस ग्रंथ का ईसवी सन् की छठी शताब्दी से पूर्व होने का अनुमान किया जाता है।'
पंचास्तिकाय-प्रवचनसार-समयसार दिगंबर संप्रदाय में भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द का नाम लिया जाता है। इन्हें पद्मनंदि, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ के नाम से भी कहा है। लेकिन इनका वास्तविक नाम था पद्मनन्दि, और कोण्डकुण्ड के निवासी होने के कारण ये कुन्दकुन्द नाम से कहे जाते थे। इनका समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के आसपास माना गया है; ये तीसरी-चौथी शताब्दी के जान पड़ते हैं। कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार को नाटकत्रय अथवा प्राभृतत्रय के नाम से भी कहा गया है। ये द्रव्यार्थिक नयप्रधान आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं, इनमें शुद्ध निश्चयनय से वस्तु का प्रतिपादन किया गया है । इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द ने नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड और दशभक्ति की रचना की है। ___ पंचास्तिकाय में पाँच अस्तिकायों का वर्णन है। इस पर अमृतचन्द्रसूरि और जयसेन आचार्य ने संस्कृत में टीकायें लिखी हैं। पंचास्तिकाय में १७३ गाथायें हैं जो दो श्रुतस्कंधों में विभाजित हैं। पहले श्रुतस्कंध में षड्द्रव्य और पाँच अस्तिकायों
१. तिलोयपण्णत्ति की प्रस्तावना, पृ० ४६ । २. देखिये डॉ. उपाध्ये, प्रवचनसार की भूमिका, पृष्ठ १०-२२ ।
३. रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला में अमृतचन्द्र और जयसेन की संस्कृत टीकाओं सहित सन् १९०४ में बम्बई से प्रकाशित ; सेक्रेड बुक्स ऑव द जैन्स, जिल्द ३ में प्रोफेसर ए० चक्रवर्ती के अंग्रेजी अनुवाद और भूमिका सहित सन् १९२० में आरा से प्रकाशित ।