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२९० प्राकृत साहित्य का इतिहास किया है । मूलप्रकृतिअनुभागबंध और उत्तरप्रकृतिअनुभागबंध की अपेक्षा यह दो प्रकार का है। इनका निषेकप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा आदि अधिकारों द्वारा विवेचन किया है। पाँचवीं पुस्तक में अनुभागबंध अधिकार के शेष भाग का प्ररूपण है। सन्निकर्ष, भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन आदि प्ररूपणाओं द्वारा इसका विवेचन किया है। छठी पुस्तक में प्रदेशबंध नामके अधिकार का विवेचन है। इसमें प्रत्येक समय में बंध को प्राप्त होनेवाले मूल और उत्तर कर्मों के प्रदेशों के आश्रय से मूलप्रकृतिप्रदेशबंध और उत्तरप्रकृतिप्रदेशबंध का विचार किया गया है। अनेक अनुयोगद्वारों के द्वारा इनका प्ररूपण किया है। महाबंध की सातवीं पुस्तक में प्रदेशबंध अधिकार के शेषभाग का निरूपण है। इसमें क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, भावप्ररूपणा, अल्पबहुत्वप्ररूपणा, भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, समुत्कीर्तना, स्वामित्व,अल्पबहुत्व वृद्धिबंध, अध्यवसान समुदाहार और जीवसमुदाहार नामक अधिकारों के द्वारा विषय का प्रतिपादन किया है। ___ इस प्रकार सात पुस्तकों में महाबंध समाप्त होता है। महाबंध के समाप्त होने से षट्खण्डागम के छहों खण्डों की समाप्ति हो जाती है।
कसायपाहुड (कषायप्राभृत) षट्खंडागम की भाँति कषायप्रामृत भी द्वादशांग का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इस ग्रन्थ का उद्धार पाँचवें ज्ञानप्रवादपूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेजदोसपाहुड से किया गया है। अतएव कषायप्राभृत को पेजदोसपाहुड भी कहा जाता है। पेज का अर्थ राग और दोस का अर्थ द्वेष होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में क्रोध आदि कषायों की राग-द्वेष-परिणति और उनके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशगत वैशिष्ट्य आदि का निरूपण किया गया है। कषायप्राभृत की रचना २३३ गाथा-सूत्रों में की गई है-ये सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त और गूढार्थ लिये हुए हैं। इनके