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बृहत्कल्पभाष्य
२२१ सीसा पडिच्छगाणं, भरो त्ति ते विय हु सीसगभरो त्ति। न करिति सुत्तहाणी, अन्नत्थ वि दुल्लहं तेसिं॥
-किसी व्यक्ति ने चतुर्वेदी ब्राह्मणों को एक गाय दान में दी। ब्राह्मण गाय को बारी-बारी से दुहते । जिसकी बारी होती वह सोचता कल तो मुझे दुहना नहीं, इसलिये इसे घास-चारा ही देना व्यर्थ है। कुछ समय बाद गाय मर गई जिससे ब्राह्मणों को अपयश का भागी बनना पड़ा। कुछ समय बाद फिर से उन लोगों को एक गाय दान में मिली । उन्होंने सोचा कि यदि अबकी बार भी हम गाय को घास-चारा न देंगे तो वह मर जायेगी। लोग फिर हमारी निन्दा करेंगे, गोहत्या का हमें पाप लगेगा, और भविष्य में हम दान से वंचित रह जायेंगे। यह सोचकर ने गाय को घास-चारा देने लगे। ___ इस उदाहरण से शियों को अपने आचार्यों की सेवाशुश्रूषा में रत रहने का उपदेश दिया गया है। ___ कौमुदिकी, संग्रामिकी, दुभूतिका और अशिवोपशमिनी नाम की चार भेरियों, तथा जानती, अजानती और दुर्विदग्धा नाम की तीन परिषदों का उल्लेख है। लौकिक परिषद् के पाँच भेद हैं-पूरयन्ती, छत्रवती, बुद्धि, मंत्री, और राहस्यिकी। साधुओं की वसति बनाने के लिये वल्लियों के ऊपर बाँस बिछाकर, उन्हें चारों ओर से चटाइयों से ढककर, उन्हें सुतलियों से बाँध कर ऊपर से घास बिछा देना चाहिये, फिर उसे गोबर से लीप देना चाहिये। । दूसरे भाग में प्रथम उद्देश्य के १-६ सूत्रों पर ८०६-२१२४ गाथायें हैं। इनमें प्रलम्बसूत्र की विस्तृत व्याख्या, अध्वद्वार, ग्लानद्वार, ग्राम, नगर, खेड, कीटक, मडंब, पत्तन आदि की व्याख्या, जिनकल्पी का स्वरूप, समवसरणद्वार, प्रशस्त-अप्रशस्त भावनायें, गमनद्वार, स्थविरकल्पी की स्थिति, प्रतिलेखनाद्वार, भिक्षाद्वार, चैत्यद्वार, रथयात्रा की यातनायें, वैद्य के समीप गमन करने की विधि, निग्रंथनियों का विहार और वसतिद्वार आदि