________________
दशवकालिकचूर्णी यौगंधरायण के. एक श्लोक ( ३.६) का उद्धरण भी यहाँ दिया गया है।
दशवैकालिकचूर्णी दशवकालिकचूर्णी के कर्ता जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। लेकिन अभी हाल में वज्रस्वामी की शाखा में होनेवाले स्थविर अगस्त्यसिंह-विरचित दशबैकालिकचूर्णी का पता लगा है जो जैसलमेर के भंडार में मिली है । अगस्त्यसिंह का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी माना गया है, और सबसे महत्त्व की बात यह है कि यह चूर्णी वल्लभी वाचना के लगभग २००-३०० वर्ष पूर्व लिखी जा चुकी थी। दशवैकालिक पर जिनदासगणिविरचिन कही जानेवाली चूर्णी को हरिभद्रसूरि ने वृद्धविवरण कहकर उल्लिखित किया है। अन्य भी किसी प्राचीन वृत्ति का उल्लेख यहाँ मिलता है। दशवैकालिक की कितनी ही गाथायें मूलसूत्र की गाथायें न मानी जाकर इस प्राचीन वृत्ति की गाथायें मानी जाती रही हैं, इस बात का उल्लेख चूर्णीकार अगस्त्यसिंह ने जगह-जगह किया है।
अभित्थनय पज्जुन्न ! विधिं काकस्स नासय ।
काकं सोकाय रन्धेहि मञ्च सोका पमोचय ॥ दोनों में एक ही परम्परा सुरक्षित है।
१. यहाँ महावीर की विहार-चर्या में जो कंबल-शबल का उल्लेख है उसकी तुलना ब्राह्मणों की हरिवंशपुराण के कंवल और अश्वतर नागों के साथ की जा सकती है।
२. रतलाम से सन् १९३३ में प्रकाशित। .
३. देखिये मुनि पुण्यविजयजी द्वारा बृहत्कल्पसूत्र, भाग ६ का आमुख।
४. यह चूर्णी मुनि पुण्यविजयजी प्रकाशित कर रहे हैं। इसके कुछ मुद्रित फर्मे उनकी कृपा से मुझे देखने को मिले।