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प्राकृत साहित्य का इतिहास तुम्हारे प्रति मेरी प्रीति बढ़ती है। किन्तु इस स्नेह से मैं वंचित रहता हूँ-यही मेरे दुर्बल होने का कारण है। निर्ग्रथों को स्त्रियों के संपर्क से दूर ही रहने का उपदेश हैआसंकितो व वासो, दुक्खं तरुणा य सन्नियत्ते। धंतं पि दुब्बलासो, खुन्मइ बलवाण मज्झम्मि ॥
-निवास स्थान में स्त्रियों की आशंका सदा बनी रहती है। जैसे अत्यन्त दुर्बल अवस्था को प्राप्त घोड़ा भी घोड़ियों के बीच में रहता हुआ क्षोभ को प्राप्त होता है, वही दशा स्त्रियों के बीच में रहते हुए तपोनिष्ठ तरुण साधु की होती है।
भिक्षा के लिये जाती हुई आर्यिकायों की मजाक उड़ाते हुए कोई कहता है
वंदामु खंति ! पडपंडुरसुद्धदंति !
रच्छाए जंति ! तरुणाण मणं हरंति ॥ -क्षमाशील इस आर्यिका को हम प्रणाम करते हैं। उसके दाँतों की पंक्ति अत्यन्त शुभ्र है, और मार्ग पर जाती हुई वह तरुण जनों के मन को हरती है।
इस सम्बन्ध में दो मित्रों का वार्तालाप सुनियेपाणसमा तुझ मया, इमा या सरिसी सरिव्वया तीसे। संखे खीरनिसेओ, जुजइ तत्तेण तत्तं च ॥ सो तत्थ तीए अन्नाहि वा वि निब्भत्थिओ गओ गेहं । खामितो किल सुढियो, अक्खुन्नहि अग्गहत्थेहिं ।। पाएसु चेडरूवे, पाडेतु भणइ एस भे माता। जं इच्छइ तं दिज्जह, तुम पि साइज जायाइं॥
-हे मित्र ! तुम्हारी प्राणप्रिया मर गई है, लेकिन यह देखो रूप और अवस्था में यह साध्वी उसी के समान है। जैसे शंख में दूध भरने से वह उसी के रंग का हो जाता है, और तपा हुआ लोहा तपे हुए लोहे के साथ मिल जाता है, वैसे ही तुम्हारा भी इसके साथ सम्बन्ध हो सकता है। यह सुनकर वह