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संसत्तनिज्जुत्ति शिष्य की शंका
अग्गिम्मि हवीहूयइ आइच्चो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहियाए तेणोसहिओ परोहिंति ॥
-(उपर्युक्त कथन ठीक नहीं)! अग्नि में घी का हवन किया जाता है, उससे प्रसन्न होकर आदित्य प्रजा के हित के लिये बरसता है और उससे फिर ओषधियाँ पैदा होती हैं।
गुरु
किं दुन्भिक्खं जायइ ? जइ एवं अहभवे दुरिटुंतु | किं जायइ सव्वत्था दुभिक्खं अह भवे इंदो ? वासइ तो किं विग्धं निग्घायाईहिं जायए तस्स |
अह वासइ उउसमये न वासइ तो तणट्ठाए ॥ यदि सदा घी के हवन करने से ही वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों पड़ता है ? यदि कहा जाये कि खोटे नक्षत्रों के कारण ऐसा होता है तो भी सदा दुर्भिक्ष नहीं पड़ना चाहिये । यदि कहो कि इन्द्र वर्षा करता है तो बिजली के गिरने आदि से उसे कोई विघ्न नहीं होना चाहिये । यदि कहा जाय कि यथाकाल ऋतु में जल की वृष्टि होती है तो फिर यही मानना होगा कि तृण आदि के लिये पानी नहीं बरसता ।
आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगणी और निवेदनी नाम की चार कथाओं का यहाँ उल्लेख मिलता है।
संसत्तनिज्जुत्ति ( संसक्तनियुक्ति) यह नियुक्ति किसी आगम ग्रन्थ पर न लिखी जाकर स्वतंत्र है। चौरासी आगमों में इसकी गणना की गई है। इसमें ६४ गाथायें हैं। चतुर्दश पूर्वधारी भद्रबाहु ने इसकी रचना
की है।
गोविन्दणिज्जुत्ति ( गोविन्दनियुक्ति) यह भी एक स्वतंत्र नियुक्ति है। इसे दर्शनप्रभावक शास्त्र कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों की सिद्धि करने के लिये गोविन्द
१४ प्रा० सा०