________________
प्राकृत साहित्य का इतिहास अनेक वस्तुओं के भोगोपभोग का किंचित् परिमाण किया, तथा अंगारकर्म, वनकर्म, दंतवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीडनकर्म आदि पन्द्रह कर्मदानों का त्याग किया।' अन्य तीर्थिकों का सम्मान करना और भिक्षा आदि से उनका सत्कार करना छोड़ दिया। अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुंब का भार सौंपकर वह कोल्लाक संन्निवेश की ज्ञातृक्षत्रियों की पौषधशाला में जाकर श्रमण भगवान महावीर के धर्म का पालन करने लगा। तपश्चर्या के कारण उसका शरीर कृश हो गया और भक्त-पान का प्रत्याख्यान करके संलेखनापूर्वक वह समय यापन करने लगा। गृहस्थ अवस्था में ही आनन्द को अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। मर कर वह स्वर्ग में देव हुआ ।
दूसरे अध्ययन में कामदेव उपासक की कथा है। यहाँ एक पिशाच का विस्तृत वर्णन है जिसने कामदेव को अपने व्रत से डिगाने के लिये अनेक प्रकार के उपद्रव किये | जब वह अपने उद्देश्य में सफल न हुआ तो कामदेव की स्तुति करने लगा। महावीर भगवान् ने भी कामदेव की प्रशंसा की और उन्होंने श्रमण निग्रंथों को बुलाकर उपसगों को शांतिपूर्वक सहन करने का आदेश दिया।
१. आजीविक मतानुयायियों के लिये भी इनके त्याग का विधान है। इस सम्प्रदाय की विशेष जानकारी के लिये देखिये होएनल का एनसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन एण्ड एथिक्स (जिल्द १, पृ. २५९-६८) में 'आजीविकाज़' नामक लेख; डॉक्टर वी. एम. बरुआ, 'द आजीविकाज'; 'प्री-बुद्धिस्ट इण्डियन फिलासफी' पृष्ट २९७-३ १८; डॉक्टर बी.सी. लाहा, हिस्टोरिकल ग्लीनींग्ज, पृष्ट ३७ इत्यादि; ए. एल. बाशम, हिस्ट्रो एण्ड डॉक्ट्रीन्स ऑव द आजीविकाज; जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐंशियेण्ट इंडिया ऐज़ डिपिक्टेड इन जैन कैनन्स, पृष्ठ २०७-११, जगदीशचन्द्र जैन, संपूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रंथ में 'मंखलिपुत्र गोशाल और ज्ञातृपुत्र महावीर' नामक लेख।