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आचारांगनियुक्ति टीका लिखी है। शान्तिसूरि ने प्राकृत की कथायें उद्धृत करते हुए अनेक स्थलों पर वृद्धसम्प्रदाय, वृद्ध, वृद्धवाद अथवा 'अन्ने भणंति' कहा है जिससे सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल से इन कथाओं की परंपरा चली आ रही थी। उक्त दोनों टीकाओं में बंभदत्त और अगडदत्त की कथायें तो इतनी लम्बी हैं कि वे एक स्वतंत्र पुस्तक का विषय है। अन्य टीकाकारों में ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी के विद्वान् अभयदेवसूरि, द्रोणाचार्य मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि, तथा क्षेमकीर्ति (ईसवी सन् १२७५), शान्तिचन्द्र (ईसवी सन् १५६३) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वास्तव में आगम-सिद्धांतों पर व्याख्यात्मक साहित्य का इतनी प्रचुरता से निर्माण हुआ कि वह एक अलग ही साहित्य बन गया । इस विपुल साहित्य ने अपने उत्तरकालीन साहित्य के निर्माण में योगदान दिया जिसके परिणामस्वरूप प्राकृत भाषा का कथा-साहित्य, चरित-साहित्य, धार्मिक-साहित्य और शास्त्रीय-साहित्य उत्तरोत्तर विकसित होकर अधिकाधिक समृद्ध होता गया ।
नियुक्ति-साहित्य
आचारांगनियुक्ति आचारांगसूत्र पर भद्रबाहुसूरि ने ३५६ गाथाओं में नियुक्ति लिखी है। इन पर शीलांक ने महापरिण्णा अध्ययन की दस गाथाओं को छोड़कर टीका लिखी है। द्वादशांग के प्रथम अंग आचारांग को प्रवचन का सार और आचारधारी को गणियों में प्रधान कहा गया है। कौन किसका सार है, इसका विवेचन करते हुए कहा है
अंगाणं किं सारो ? आयारो, तस्स हवइ किं सारो ? अणुओगत्थो सारो, तस्सवि य परूवणा सारो । सारो परूवणाए चरणं, तस्सवि य होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो, अव्वाबाहं जिणा बिति ।।