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१९८ प्राकृत साहित्य का इतिहास समझने के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। ये टीकायें संस्कृत में हैं, यद्यपि कुछ टीकाओं का कथासंबंधी अंश प्राकृत में भी उद्धत किया गया है। जान पड़ता है कि आगमों की अंतिम वलभी वाचना के पूर्व ही आगमों पर टीकायें लिखी जाने लगी थीं। विक्रम की तीसरी शताब्दी के आचार्य अगस्त्यसिंह ने अपनी दशवैकालिकचूर्णी में अनेक स्थलों पर इन प्राचीन टीकाओं की ओर संकेत किया है। इसके अतिरिक्त, हिमवंत थेरावली के अनुसार आर्य मधुमित्र के शिष्य तत्त्वार्थ के ऊपर महाभाष्य के लेखक आर्य गंधहस्ती ने आर्यस्कंदिल के आग्रह पर १२ अंगों पर विवरण लिखा था। आचारांगसूत्र का विवरण विक्रम संवत् के २०० वर्ष बाद लिया गया। इससे आगमों पर लिखे गये व्याख्यात्मक साहित्य का समय काफी पहले पहुँच जाता है। टीकाकारों में याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि (७०५-७७५ ईसवी सन् ) का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक नन्दी और अनुयोगद्वार पर टीकायें लिखीं। प्रज्ञापना पर भी हरिभद्र ने टीका लिखी है। इन टीकाओं में लेखक ने कथाभाग को प्राकृत में ही सुरक्षित रक्खा है। हरिभद्रसूरि के लगभग १०० वर्षे पश्चात् शीलांकसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत टीकायें लिखीं। इनमें जैन आचार-विचार और तत्त्व- । ज्ञानसंबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है।
हरिभद्रसूरि की भांति टीकाओं में प्राकृत कथाओं को सुरक्षित रखनेवाले आचार्यों में वादिवेताल शान्तिसूरि, नेमिचन्द्रसूरि और मलयगिरि का नाम उल्लेखनीय है। शान्तिसूरि और नेमिचन्द्र ईसवी सन की ११वीं शताब्दी में हुए थे । शान्तिसूरि की तो टीका का नाम ही पाइय (प्राकृत) टीका है, इसे शिष्यहिता अथवा उत्तराध्ययनसूत्र-बृहद्वृत्ति भी कहा गया है। नेमिचन्द्रसूरि ने इस टीका के आधार पर सुखबोधा नाम की
..देखिये पुण्यविजयजी द्वारा संपादित वृहत्कल्पसूत्र भाग ६ का भामुख।।