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उत्तरज्झयण -महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाथ नहीं है । अनुकंपा करनेवाला कोई मित्र आजतक मुझे नहीं मिला। राजा होमि नाहो भयंताणं, भोगे भुंजाहि संजया ।
मित्तनाईपरिवुडो, माणुस्सं खलु दुल्लहं ।। -आप जैसे ऋद्धिधारी पुरुष का यदि कोई नाथ नहीं है तो मैं आपका नाथ होता हूँ। अपने मित्र और स्वजनों से परिवेष्टित ही आप यथेच्छ भोगों का उपभोग करें।
मुनि-अप्पणावि अणाहो सि, सेणिआ ! मगहाहिवा! ___अप्पणा अणाहो संतो, कस्स गाहो भविस्ससि ।।
-हे मगधराज श्रेणिक ! तू स्वयं ही अनाथ है, फिर भला दूसरों का नाथ कैसे बन सकता है ?
इसके बाद मुनि ने अपने जीवन का आद्योपान्त वृत्तान्त श्रेणिक को सुनाया और श्रेणिक निम्रन्थ धर्म का उपासक बन गया।
बाईसवें अध्ययन में अरिष्टनेमि और राजीमती की कथा है। कृष्ण वासुदेव के संबंधी अरिष्टनेमि जब राजीमती को व्याहने आये तो उन्हें बाड़ों में बंधे हुए पशुओं का चीत्कार सुनाई दिया। पता चला कि पशुओं को मार कर बारातियों के लिये भोजन बनेगा, यह सुनकर अरिष्टनेमि को वैराग्य हो आया
और वे रैवतक (गिरनार) पर्वत पर तप करने चल दिये । बाद में राजीमती ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और वह भी इसी पर्वत पर तप करने लगी। एक बार की बात है, वर्षा के कारण राजीमती के सब वस्त्र गीले हो गये । उसने अपने वस्त्रों को निचोड़ कर सुखा दिया और पास की एक गुफा में खड़ी हो गई। संयोगवश उस समय वहाँ अरिष्टनेमि के भाई रथनेमि ध्यान में अवस्थित थे। राजीमती को वस्त्ररहित अवस्था में देखकर उनका मन चलायमान हो गया । राजीमती से वे कहने लगे
रहनेमि अहं भद्दे ! सुरूवे ! चारुभासिणी ! ममं भयाहि सुतणु ! न ते पीला भविस्सई ।