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दसवेयालिय
१७५ ने मूलसूत्र और नियुक्ति के जर्मन अनुवाद के साथ इसे प्रकाशित किया है। उत्तराध्ययन की भाँति पिशल ने इस सूत्र को भाषाशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। दशवैकालिक के पाठों की अशुद्धता की ओर उन्होंने खास तौर से लक्ष्य किया है।'
पहला अध्ययन द्रुमपुष्पित है। यहाँ साधु को भ्रमर की उपमा दी है
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥
-जैसे भ्रमर वृक्ष के पुष्पों को विना पीड़ा पहुँचाये उनका रसास्वादन कर अपने आपको तृप्त करता है, वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में रत रहता है। __ दूसरा अध्ययन श्रामण्यपूर्वक है। श्रामण्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसके संबंध में कहा है
कहं नु कुजा सामण्णं जो कामे न निवारए ।
पए पए विसीयन्तो संकप्पस्स वसं गओ। १. प्राकृतभाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ ३५। दशवैकालिक के पद्यों की आचारांगसूत्र के साथ तुलना के लिये देखिये डॉक्टर ए० एम० घाटगे का न्यू इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द १, नं० २ पृ० १३०.७) में 'पैरेलल पैसेजेज़ इन द दशवैकालिक एण्ड द भाचारांग' नामक लेख । २. मिलाइये-यथापि अमरो पुप्फ वाणगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे ॥
धम्मपद, पुप्फवग्ग । ३. इस अध्ययन की बहुत सी गाथायें उत्तराध्ययनसूत्र के २२वें अध्ययन से मिलती हैं। ४. मिलाइये-कति हं चरेय्य सामनं चित्तं चे न निवारेय्य । पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानुगो ।
संयुत्तनिकाय ( १. २.७)