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पिंडनिज्जुति
१८१ साधुओं के निमित्त अथवा उद्देश्य से बनाया हुआ, खरीद कर अथवा उधार लाया हुआ, किसी वस्तु को हटा कर दिया हुआ और ऊपर चढ़ कर लाया हुआ भोजन निषिद्ध कहा है। उत्पादन दोष के सोलह भेद हैं। दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर साधुओं को भिक्षा प्राप्त करने में बड़ी कठिनाइयाँ हुआ करती थीं। इसलिये जहाँ तक हो दोषों को बचाकर भिक्षा ग्रहण करने का विधान है। धाई का कार्य करके भिक्षा प्राप्त करना धात्रीपिंड दोष कहा जाता है। संगमसूरि इस प्रकार से भिक्षाग्रहण कर अपना निर्वाह करते थे; उन्हें प्रायश्चित का भागी होना पड़ा। कोई समाचार ले जाकर भिक्षा प्राप्त करना दूतीपिंड दोष है; धनदत्त मुनि का यहाँ उदाहरण दिया है। इसी प्रकार अनेक साधु भविष्य बताकर, जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प की समानता उद्घोषित कर, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि और श्वान के भक्त बन कर, क्रोध, मान, माया और लोभ का उपयोग करके, दाता की प्रशंसा करके, चिकित्सा, विद्या, मंत्र अथवा वशीकरण का उपयोग करके भिक्षा ग्रहण करते थे। इसे सदोष भिक्षा कहा है । एषणा (निर्दोष आहार) के दस भेद हैं। बाल, वृद्ध, उन्मत्त, कंपित-शरीर, ज्वर-पीड़ित, अंध, कुष्ठी, खंडाऊ पहने, बेड़ी में बद्ध आदि पुरुषों से भिक्षा ग्रहण करना निषिद्ध है । इसी प्रकार भोजन करती हुई, दही बिलोती हुई, आटा पीसती हुई, चावल कूटती हुई, रुई धुनती हुई, कपास ओटती हुई आदि स्त्रियों से भिक्षा नहीं लेने का विधान है। स्वाद के लिये भिक्षा में प्राप्त वस्तुओं को मिलाकर खाना संयोजना दोष है। आहार के प्रमाण को ध्यान में रखकर भिक्षा नहीं ग्रहण करना प्रमाण दोष है। आग में अच्छी तरह पकाये हुए भोजन में आसक्ति दिखाना अंगार दोष, और अच्छी तरह न पकाये हुए भोजन की निन्दा करना धूमदोष है। संयमपालन, प्राणधारण और धर्मचिन्तन आदि का ध्यान न रख कर गृध्रता के लिये भोजन करना कारण दोष है।