________________
.१७८ प्राकृत साहित्य का इतिहास धर्मार्थकथा अथवा महाचारकथा नामक अध्ययन में साधुओं के अठारह स्थानों का निरूपण है । अहिंसा की आवश्यकता बताते हुए कहा है
सव्वजीवा वि इच्छन्ति जीविउंन मरिजिउं।
तम्हा पाणवहं घोरं निग्गन्था वज्जयन्ति णं ॥ -सब जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिये निम्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते हैं । परिग्रह के संबंध में कहा है
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं ।। तं पि संजमलजट्ठा धारेन्ति परिहरन्ति य॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणा ।। -वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन जो साधु धारण करते हैं, वह केवल संयम और लज्जा के रक्षार्थ ही करते हैं । वस्त्र, पात्र आदि रखने को परिग्रह नहीं कहते, ज्ञातपुत्र महावीर ने मूर्छाआसक्ति को परिग्रह कहा है। __ सातवें अध्ययन में वाक्यशुद्धि का प्रतिपादन है। आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का वर्णन है
बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छई। .
न य दिळं सुयं सव्वं, भिक्खू, अक्खाउमरिहई ॥ -भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है, आँखों से बहुत कुछ देखता है, लेकिन जो वह सुनता और देखता है उस सब को किसी के सामने कहना योग्य नहीं ।
धर्माचरण का उपदेश___ जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्ढइ ।
जाविन्दिया न हायन्ति ताव धम्म समाचरे॥ -बुढ़ापा जब तक पीड़ा नहीं देता, व्याधि कष्ट नहीं पहुँचाती और इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती, तब तक धर्म का आचरण करे।