________________
१४८ प्राकृत साहित्य का इतिहास आलोचना करने का उल्लेख है। तीसरे और चौथे अध्ययन में साधुओं को कुशील साधुओं का संसर्ग न करने का उपदेश है। यहाँ नवकारमंत्र, उपधान, दया और अनुकंपा के अधिकारों का विवेचन है । वज्रस्वामी ने नवकारमंत्र का उद्धार करके उसे मूलसूत्र में स्थान दिया, इसका यहाँ उल्लेख है।' कुशील का संसर्ग छोड़कर आराधक बननेवाले नागिल की कथा दी हुई है। पाँचवें अध्ययन का नाम नवनीतसार है। इसमें गुरु-शिष्य का संबंध बताते हुए गच्छ का वर्णन किया गया है। गच्छाचार नाम के प्रकीर्णक को इसके आधार से रचा गया है । छठे अध्ययन में प्रायश्चित्त के दस और आलोचना के चार भेदों का वर्णन है। आचार्य भइ के एक गच्छ में पाँच सौ साधु और बारह सौ साध्वियों के होने का उल्लेख है | भोजन की जगह शुद्ध जल ग्रहण करने का गच्छ का नियम था, जिससे एक साध्वी बीमार पड़ गई। लक्षणादेवी जंबुदाडिम और सिरिया की अन्तिम पुत्री थी । विवाह के थोड़े ही दिन पश्चात् वह विधवा हो गई। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। एक दिन पक्षियों की संभोग-क्रीड़ा देखकर वह कामातुर हो गई। अगले जन्म में वह किसी गणिका की दासी के रूप में पैदा हुई । गणिका ने उसके नाक, कान आदि काटकर उसे कुरूप बनाना चाहा | दासी को किसी तरह इस बात का पता लग गया और वह उस स्थान से भाग गई । बाद में किसी व्यक्ति से उसने विवाह कर लिया । लेकिन उसकी सौत उससे बहुत ईर्ष्या करती थी। उसकी मृत्यु होने पर उसके शव को पशु-पक्षियों के खाने के लिये जंगल में फेंक दिया गया | चूलाओं में सुज्झसिव, सुसढ़ और अंजनश्री
आदि की कथायें हैं । यहाँ सती होने का तथा राजा के अपुत्र होने के कारण उसकी विधवा कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का
१. षट्खंडागम के टीकाकार वीरसेन आचार्य के अनुसार आचार्य पुष्पदंत णमोकारमंत्र के आदि कर्ता माने गये हैं। देखिये डॉक्टर हीरालाल जैन की पखंडागम, भाग २ की प्रस्तावना, पृष्ठ ३५-४१ ।