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१६४ प्राकृत साहित्य का इतिहास इसे उत्तराध्ययन कहते हैं । धार्मिक-काव्य की दृष्टि से यह आगम बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें उपमा, दृष्टांत, और विविध संवादों द्वारा काव्यमय मार्मिक भाषा में त्याग, वैराग्य और संयम का उपदेश है । डॉक्टर विंटरनीज़ ने इस प्रकार के साहित्य को श्रमण-काव्य की कोटि में रख कर महाभारत, धम्मपद और सुत्तनिपात आदि के साथ इस सूत्र की तुलना की है। भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति और जिनदासगणि महत्तर ने चूर्णी लिखी है। थारापद्रगच्छीय वादिवेताल शान्तिसूरि ( मृत्यु सन् १०४० में) ने शिष्यहिता नाम की पाइय टीका और नेमिचन्द्रसूरि (पूर्व नाम देवेन्द्रगणि) ने शांतिसृरि के आधार पर सुखबोधा (सन् १०७३ में समाप्त ) टीका लिखी है। इसी प्रकार लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस, हरेकूल आदि अनेक विद्वानों ने भी टीकायें लिखी हैं। जॉल शार्पेण्टियर ने अंग्रेजी प्रस्तावना सहित मूलपाठ का संशोधन किया है। हर्मन जैकोबी ने इसे सेक्रेड बुक्स ऑव द ईस्ट के ४५वें भाग में अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित किया है।
उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं, जिनमें नेमिप्रव्रज्या, हरिकेश-आख्यान, चित्त-संभूति की कथा, मृगापुत्र का आख्यान, रथनेमी और राजीमती का संवाद, केशी और गौतम का संवाद
१. जिनदासगणि महत्तर की चूर्णी रतलाम से १९३३ में प्रकाशित हुई है; शान्तिसूरि की टीका सहित देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारमाला के ३३, ३६ और ४१ वें पुष्प में बंबई से प्रकाशित ; नेमिचन्द्र को सुखबोधा टीका बंबई से सन् १९३७ में प्रकाशित । अखिल भारतीय श्वेतांबर स्थानकवासी जैनशास्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् १९५९ में हिन्दी-गुजराती अनुवाद सहित इसका एक नया संस्करण निकला है।
२. समवायोग सूत्र में उल्लिखित उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों से ये कुछ भिन्न हैं।