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मूलसूत्र बारह उपांगों की भाँति मूलसूत्रों का उल्लेख भी प्राचीन आगम ग्रन्थों में देखने में नहीं आता।' इन ग्रन्थों में साधुजीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश है, इसलिये इन्हें मूलसूत्र कहा है। कुछ लोग उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवकालिक सूत्रों को ही मूलसूत्र मानते हैं, पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति को मूलसूत्रों में नहीं गिनते । इनके अनुसार पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का, और ओपनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का ही एक अंश है । कुछ विद्वान् पिंडनियुक्ति को मूलसूत्रों में सम्मिलित कर मूलसूत्रों की संख्या चार मानते हैं, और कुछ पिंडनियुक्ति के साथ ओघनियुक्ति को भी शामिल कर लेते हैं । कहीं पक्खियसुत्त का नाम भी लिया जाता है । आगमों में मूलसूत्रों का स्थान कई दृष्टियों से बहुत महत्त्व का है। इनमें उत्तराध्ययन और दशवैका.लिक जैन आगमों के प्राचीनतम सूत्रों में गिने जाते हैं, और इनकी तुलना सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन बौद्धसूत्रों से की जाती है।
उत्तरज्झयण ( उत्तराध्ययन) उत्तराध्ययन में महावीर के अन्तिम चातुर्मास के समय उनसे बिना पूछे हुए ३६ विषयों के उत्तर संगृहीत हैं, इसलिये
१. सब से पहले भावसूरि ने जैनधर्मवरस्तोत्र (श्लोक ३०) की टीका (पृ. ९४ ) में निम्नलिखित मूलसूत्रों का उल्लेख किया हैअथ उत्तराध्ययन १, आवश्यक २, पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति ३, दशवैकालिक ४ इति चत्वारि मूलसूत्राणि-प्रो० एच० आर० कापडिया, द कैनोनिकल लिटरेचर ऑब द जैन्स, पृ० ४३ फुटनोट ।