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१५९ रक्खे हों, अग्नि जल रही हो, दीपक का प्रकाश हो रहा हो, पिंड, क्षीर, दही आदि बिखरे पड़े हों, वहाँ रहना योग्य नहीं । आगमनगृह (सार्वजनिक स्थान), खुले हुए घर, वंशीमूल ( घर के बाहर का चौंतरा), वृक्षमूल आदि स्थानों में निम्रन्थिनियों के रहने का निषेध है । पाँच प्रकार के वस्त्र और रजोहरण धारण करने का विधान है। __तीसरे उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को एक दूसरे के उपाश्रय में आने-जाने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए वहाँ सोने, बैठने, आहार, स्वाध्याय और ध्यान करने का निषेध किया है । रोग आदि की दशा में चर्म रखने का विधान है। कृत्स्न और अकृत्स्न वस्त्र रखने की विधि का उल्लेख है । प्रव्रज्या ग्रहण करते समय उपकरण ग्रहण करने का विधान है। वर्षाकाल तथा शेष आठ मास में वस्त्र व्यवहार करने की विधि बताई है । घर के अन्दर अथवा दो घरों के बीच में बैठने, सोने आदि का निषेध है। विहार करने के पूर्व गृहस्थ की शय्या, संस्तारक आदि लौटाने का विधान है। ग्राम, नगर आदि के बाहर यदि राजा की सेना का पड़ाव हो तो वहाँ ठहरने का निषेध है।
चौथे उद्देशक में प्रायश्चित्त और आचारविधि का उल्लेख • है। हस्तकर्म, मैथुन और रात्रिभोजन का सेवन करने पर
अनुद्धातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। पारंचिक और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य स्थान बताये गये हैं | षण्डक (नपुंसक), वातिक और क्लीब को प्रव्रज्या देने का निषेध है। दुष्ट, मूढ और व्युग्राहित (भ्रान्त चित्तवाला ) को उपदेश और प्रव्रज्या आदि का निषेध है। सदोष आहार-सम्बन्धी नियम बताये हैं । एक गण छोड़कर दूसरे गण में जाने के सम्बन्ध में नियमों का उल्लेख है। रात्रि के समय अथवा विकाल में साधु के कालगत होने पर उसके परिष्टापन की विधि बताई है ।' . १. मृतक के क्रिया-कर्म के लिये देखिये रामायण (४.२५. १६ इत्यादि), तथा बी० सी० लाहा, इण्डिया डिस्क्राइब्ड, पृ० १९३ ।