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प्राकृत साहित्य का इतिहास अथवा उत्तर दिशा में अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रख, 'मैंने ये अपराध किये हैं' कहकर आलोचना करे ।
दूसरे उद्देशक में ३० सूत्र हैं। यहाँ परिहारकल्प में स्थित रुग्ण साधु को गण से बाहर निकालने का निषेध है। यही नियम अनवस्थाप्य और पारंचिक प्रायश्चित्त में स्थित तथा क्षिप्तचित्त, यक्षाविष्ट, उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, प्रायश्चित्तप्राप्त आदि भिक्षु के संबंध में भी लागू होता है। यदि दो साधर्मिक एकत्र विहार करते हैं और उनमें से कोई एक कोई अकृत्य कर्म करके आलोचना करता है तो यदि वह स्थापनीय है तो उसे अलग रखना चाहिये, और आवश्यकता पड़ने पर उसका वैयावृत्य करना चाहिये । परिहारकल्प-स्थित भिक्षु को अशनपान आदि प्रदान करने का निषेध है; स्थविरों की आज्ञा से ही उसे अशन-पान दिया जा सकता है।
तीसरे उद्देशक में २६ सूत्र हैं। यदि कोई भिक्षु गण का धारक बनना चाहे तो स्थविरों को पूछकर ही उसे ऐसा करना योग्य है । अन्यथा उसे छेद अथवा परिहार का भागी होना पड़ता है। तीन वर्ष की पर्यायवाला, आचार आदि में कुशल, बहुश्रुतवेत्ता श्रमण निर्ग्रन्थ कम-से-कम आचारप्रकल्प (निशीथ) धारी को, पाँच वर्ष की पर्यायवाला कम-से-कम दशा-कल्प और व्यवहारधारी को तथा आठ वर्ष की पर्यायवाला कम-से-कम स्थानांग और समवायांगधारी को उपदेश दे सकने योग्य है। यदि कोई भिक्षु गण छोड़कर मैथुन का सेवन करे तो तीन वर्ष तक वह आचार्यपद का अधिकारी नहीं हो सकता। यदि कोई गणावच्छेदक अपने पद पर रहकर मैथुनधर्म का सेवन करे तो जीवनपर्यन्त उसे कोई पद देना योग्य नहीं।
चौथे उद्देशक में ३२ सूत्र हैं। आचार्य और उपाध्याय के लिये हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में अकेले विहार करने का निषेध किया गया है, वर्षाकाल में दो के साथ विहार करने का विधान है। गणावच्छेदक को तीन के साथ विहार करना