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तन्दुलवेयालिय
१२५ उन्हें अविश्वास की भूमि, शोक की नदी, पाप की गुफा, कपट की कुटी, क्लेशकरी, दुःख की खानि आदि विशेषणों से संबोधित किया है । उदासीन भाव क्यों रखना चाहिये
छलिआ अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण होअव्वं ॥
–अपेक्षायुक्त जीव छले जाते हैं, निरपेक्ष निर्विघ्न पार होते हैं । अतएव प्रवचनसार में निरपेक्ष भाव से रहना चाहिये। ___ इस प्रकीर्णक के कर्ता भी वीरभद्र माने जाते हैं। गुणरत्न ने इस पर अवचूरि लिखी है।
तन्दुलवेयालिय ( तन्दुलवैचारिक) इसमें ५८६ गाथायें हैं, बीच-बीच में कुछ सूत्र हैं। यहाँ गर्भ का काल, योनि का स्वरूप, गर्भावस्था में आहारविधि, माता-पिता के अङ्गों का उल्लेख, जीव की बाल, क्रीड़ा, मंद आदि दस दशाओं का स्वरूप और धर्म में उद्यम आदि का विवेचन है। युगलधर्मियों के अंग-प्रत्यंगों का साहित्यिक भाषा में वर्णन है जो संस्कृत काव्य-ग्रन्थों का स्मरण कराता है। संहनन और संस्थानों का विवेचन है। तंदुल की गणना, काल के विभाग-श्वास आदि का मान, शिरा आदि की संख्या काप्रतिपादन है। काय की अपवित्रता का प्ररूपण करते हुए कामुकों को उपदेश दिया है। स्त्रियों को प्रकृति से विषम, प्रियवचनवादिनी, कपटप्रेम-गिरि की तटिनी, अपराधसहस्र की गृहिणी, शोक उत्पन्न करनेवाली, बल का विनाश करनेवाली, पुरुषों का वधस्थान वैर की खानि, शोक का शरीर, दुश्चरित्र का स्थान, ज्ञान की
१. सौ वर्ष की आयुवाला पुरुष प्रति दिन जितना तन्दुल-चावलखाता है, उसकी संख्या के विचार के उपलक्षण से यह सूत्र तन्दुलवैचारिक कहा जाता है, मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैन साहित्य नो इतिहास, पृष्ठ ८० ।