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१३० प्राकृत साहित्य का इतिहास जी ने अपने 'वीरसंवत् और जैनकालगणना' (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जिल्द १०-११ में प्रकाशित) नामक निबंध में तित्थोगालिय का कुछ अंश उद्धृत किया है। मुनि जी के कथनानुसार इस प्रकीर्णक की रचना विक्रम की चौथी शताब्दी के अन्त और पाँचवीं शताब्दी के आरम्भ में हुई होनी चाहिये ।
अजीवकल्प ___ इसमें ४० गाथायें हैं। इसकी एक अति जीर्ण त्रुटित प्रति पाटण के भण्डार में मौजूद है । इसमें आहार, उपधि, उपाश्रय, प्रस्रवण, शय्या, निषद्या, स्थान, दण्ड, परदा, अवलेखनिका, दन्तधावन आदिसम्बन्धी उपघातों का वर्णन है ।
सिद्धपाहुड (सिद्धप्राभूत) इसमें ११६ गाथाओं में सिद्धों के स्वरूप आदि का वर्णन है।'
इस पर एक टीका भी है । अग्रायणी नामके दूसरे पूर्व के आधार से इसकी रचना हुई है। .
आराधनापताका यह ग्रन्थ भी अभीतक अप्रकाशित है, इसकी हस्तलिखित प्रति पाटण भण्डारं में मौजूद है। इसके कर्ता वीरभद्र हैं ७४ ) के अनुसार वीरनिर्वाण के ८४५ वर्ष पश्चात् किसी तुरुष्क के हाथ से वलभी का नाश हुआ परन्तु जिनप्रभसूरि के तीर्थकरूप में कहा है कि गजणवह ( ग़ज़नी का बादशाह ) हम्मीद द्वारा वि० सं० ८४५ में वलभी का भंग हुआ। मोहनलाल दलीचन्द देसाई तीर्थकल्प के उल्लेख को ही अधिक विश्वसनीय मानते हैं, जैन साहित्य नो इतिहास, पृष्ठ १४५ फुटनोट । - 1. भारमानन्द जैन सभा, भावनगर की ओर से सन् १९२१ में प्रकाशित।