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१४४ प्राकृत साहित्य का इतिहास आदि सिखाने का निषेध है। कौतुककर्म, भतिकर्म, प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, लक्षण आदि के प्रयोग करने का निषेध है। अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को मार्गभ्रष्ट होने पर रास्ता बताने का निषेध है। उन्हें धातुविद्या अथवा निधि बताने का निषेध है। पानी से भरे हुए पात्र, दर्पण, मणि, तेल, मधु, घी, आदि में मुँह देखने का निषेध है। वमन, विरेचन तथा बल आदि की वृद्धि के लिये औषध सेवन का निषेध है। पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को वन्दन करने का निषेध है। धात्री, दूती, निमित्त, आजीविका, चूर्ण, योग आदि पिंड ग्रहण करने का निषेध है।
चौदहवें उद्देशक में ४५ सूत्र हैं जिन पर ४४७३-४६८६ गाथाओं का भाष्य है। यहाँ पात्र (पडिग्गह-पतद्ग्रह) के खरीदने, अदल-बदल करने आदि का निषेध है। लूले, लँगड़े, कनकटे, नककटे आदि असमर्थ साधु-साध्वियों को अतिरिक्त पात्र देने का विधान है। नवीन, सुरभिगंध अथवा दुरभिगंध पात्र को विशेष आकर्षक बनाने का निषेध है। गृहस्थ से पात्र स्वीकार करते समय उसमें से त्रसजीव, बीज, कन्द, मूल, पत्र, पुष्प आदि निकालने का निषेध है। परिषद् में से उठकर पात्र की याचना करने का निषेध है।..
पन्द्रहवें उद्देशक में १५४ सूत्र हैं जिन पर ४६६०-५०६४ गाथाओं का भाष्य है। सचित्त आम्र, आम्रपेशी, आम्रचोयक आदि के भोजन का निषेध है | आगंतगर, आरामागार तथा गृहपतिकुलों में उच्चार-प्रश्रवण स्थापित करने की विधि बताई है। पार्श्वस्थ आदि को आहार, वस्त्र आदि देने अथवा उनसे ग्रहण करने का निषेध है। विभूषा के लिये अपने पैर, शरीर, दाँत, ओष्ठ आदि के प्रमार्जन, प्रक्षालन आदि का निषेध है।। ___ सोलहवें अध्याय में ५० सूत्र हैं जिन पर ५०६५-५६०३ गाथाओं का भाष्य है। भिक्षु को सागारिक आदि की शय्या में प्रवेश करने का निषेध है। सचित्त ईख, गंडेरी आदि भक्षण