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प्राकृत साहित्य का इतिहास को बिना पूछताछ के तीन रात्रि के उपरान्त रखने का निषेध है। प्रायश्चित्त ग्रहण करनेवाले के साथ आहार आदि ग्रहण करने का निषेध है। ग्लान (रोगी) की सेवा-शुश्रूषा करने का विधान किया है। प्रथम वर्षाकाल में प्रामानुग्राम विहार करने का निषेध है। अपर्युषणा में पर्युषणा ( यहाँ पज्जोसवणा, परिवसणा, पज्जुसणा, वासावास-वर्षावास-पढम समोसरण आदि शब्दों को भाष्यकार ने पर्यायवाची कहा है ) करने एवं पर्युषणा में अपर्युषणा न करने से लगनेवाले दोषों का कथन है। (चूर्णीकार ने यहाँ कालकाचार्य की कथा दी है जिन्होंने प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन के आग्रह पर भाद्रपद सुदी पंचमी को इन्द्रमह-दिवस होने के कारण भाद्रपद सुदी चतुर्थी को पयूषण की तिथि घोषित की । इसी समय से महाराष्ट्र में श्रमणपूजा (समणपूय ) नामक उत्सव मनाया जाने लगा)।
ग्यारहवें उद्देशक में ६२ सूत्र हैं जिन पर ३२७६-३६७५ गाथाओं का भाष्य है। लोहे, तांबे, सीसे, सींग, चर्म, वस्त्र आदि के पात्र रखने और उनमें आहार करने का निषेध है। धर्म के अवर्णवाद और अधर्म के वर्णवाद बोलने का निषेध है। घी, तेल आदि द्वारा अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ के पैरों के प्रमार्जन, परिमर्दन आदि का निषेध है। अपने आप तथा दूसरे को भयभीत अथवा विस्मित करने का निषेध है । मुखवर्णमँहदेखी स्तुति करने का निषेध है । विरुद्धराज्य में गमनागमन का निषेध है। दिवाभोजन की निन्दा और रात्रिभोजन की प्रशंसा करने का निषेध है। मांस, मत्स्य आदि के ग्रहण करने का निषेध है। नैवेद्य पिंड के उपभोग का निषेध है। स्वच्छंदाचारी की प्रशंसा करने का निषेध है। अयोग्य व्यक्तियों को प्रव्रज्या देने का निषेध है (यहाँ भाष्याकार ने बाल, वृद्ध, नपुंसक, दास, ऋणी आदि अठारह प्रकार के व्यक्तियों को प्रव्रज्या के अयोग्य कहा है। नपुंसक के सोलह भेद गिनाये गये हैं । दासों के भी भेद बताये हैं)। सचेलक और अचेलक