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निसीह और चूर्णीकार के अनुसार म्लेच्छ जाति के लोग अपने घर के भीतर मृतक को गाड़ देते हैं, उसे जलाते नहीं), मृतकस्तूप, मृतकलेण, तथा उदंबर, न्यग्रोध, असत्थ ( अश्वत्थ-पीपल ), इक्षु, शालि, कपास, चंपा, चूत (आम्र) आदि का उल्लेख किया गया है। ___चौथे उद्देशक में ११२ सूत्र हैं जिन पर १५५५-१८६४ गाथाओं का भाष्य है | आरम्भ में राजा, राजरक्षक, नगररक्षक, निगमरक्षक आदि को वश में करने तथा उनकी पूजा-अर्चना करने का निषेध है । भिक्षु को निम्रन्थिनियों के उपाश्रय में विना विधि के प्रवेश करने का निषेध है। निम्रन्थिनी के आगमनपथ में दंड, यष्टि, रजोहरण, मुखपत्ती आदि उपकरण रखने का निषेध है। खिलखिला कर हँसने का निषेध है। पार्श्वस्थ, कुशील और संसक्त आदि संघाड़े के साधुओं के साथ सम्बन्ध रखने का निषेध है । सस्निग्ध हस्त आदि से अशन-पान ग्रहण करने का निषेध है। परस्पर पाद, काय, दन्त, ओष्ठ आदि के प्रमार्जन, प्रक्षालन आदि का निषेध है। उच्चार (ट्टी) और प्रश्रवण (पेशाब) की स्थापना-विधि के नियम बताये गये हैं। ___ पाँचवें उद्देशक में ७७ सूत्र हैं जिन पर १८६५-२१६४ गाथाओं का भाष्य है। सर्वप्रथम सचित्त वृक्ष के नीचे बैठकर आलोचना, स्वाध्याय आदि करने का निषेध है । अपनी संघाटी को अन्य तीर्थकों आदि से सिलवाने का निषेध है। पिचुमन्द (नीम), पलाश, बेल, आदि के पत्रों को उपयोग में लाते हुए आहार करने का निषेध है। पादपोंछन, दण्ड, यष्टि, सुई आदि लौटाने योग्य वस्तुओं को नियत अवधि के भीतर लौटा देने का विधान है । सन, कपास आदि कातने का निषेध है। दारुदंड, वेलुदण्ड, वेतदंड आदि ग्रहण करने का निषेध है। मुख, दन्त, ओष्ठ, नासिका आदि को वीणा के समान बजाने का निषेध है। अलाबुपात्र, दारुपात्र, मृत्तिकापात्र आदि को तोड़ने-फोड़ने का निषेध है । रजोहरण के सम्बन्ध में नियम बताये हैं।