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दस पइण्णग ( दस प्रकीर्णक ) नंदीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थकर द्वारा ष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना हैं, अथवा श्रुत का अनुसरण करके वचनकौशल से धर्म| आदि के प्रसंग से श्रमणों द्वारा कथित रचनायें प्रकीर्णक जाती हैं। महावीर के काल में प्रकीर्णकों की संख्या ०० बताई गई है। आजकल मुख्यतया निम्नलिखित दस र्गक उपलब्ध हैं-चउसरण (चतुःशरण ), आउरपञ्चक्खाण तुरप्रत्याख्यान ), महापञ्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान ), भत्तगा (भक्तपरिज्ञा), तन्दुलवेयालिय (तन्दुलवैचारिक), ग (संस्तारक ), गच्छायार (गच्छाचार ), गणिविज्जा गविद्या), देविंदथय ( देवेन्द्रस्तव) मरणसमाही (मरणधे)।
चउसरण (चतुःशरण) चतुःशरण को कुसलाणुबंधि अझयण भी कहा है। इसमें
थायें हैं । अरिहंत, सिद्ध, साधु और जिनदेशित धर्म को त्रि शरण माना गया है, इसलिये इस प्रकीर्णक को परण कहा जाता है। यहाँ दुष्कृत की निन्दा और सुकृत ते अनुराग व्यक्त किया है। इस प्रकीर्णक को त्रिसंध्य ध्यान योग्य कहा है। अन्तिम गाथा में वीरभद्र का उल्लेख होने 1. कुछ लोग मरणसमाही और गच्छायार के स्थान पर चन्दाविज्झय
वेध्यक) और वीरत्थव को दस प्रकीर्णकों में मानते हैं। अन्य ग्य और वीरत्थव को मिला देते हैं, तथा संथारग को नहीं गिनते नकी जगह गच्छायार और मरणसमाही का उल्लेख करते हैं। रण आदि दस प्रकीर्णक आगमोदय समिति की ओर से १९२७ में त हुए हैं।