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१२६ प्राकृत साहित्य का इतिहास स्खलना, साधुओं की वैरिणी, मत्त गज की भाँति काम के परवश, बाघिन की भाँति दुष्टहदय, कृष्ण सर्प के समान अविश्वसनीय, वानर की भाँति चंचल-चित्त, दुष्ट अश्व की भाँति दुर्दम्य, अरतिकर, कर्कशा, अनवस्थित, कृतघ्न आदि विशेषणों से संबोधित किया है। नारी के समान पुरुषों का और कोई अरि नहीं है (नारीसमा न नराणं अरीओ नारीओ) इसलिये उन्हें नारी, अनेक प्रकार के कर्म और शिल्प आदि के द्वारा पुरुषों को मोहित करने के कारण महिला (नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पइयाएहिं पुरिसे मोहंति ति महिलाओ), पुरुषों को मदयुक्त करने के कारण प्रमदा (पुरिसे मत्ते करंति त्ति पमयाओ ), महान् कलह उत्पन्न करने के कारण महिलिया (महंतं कलिं जणयंति त्ति महिलियाओ), पुरुषों को हावभाव आदि के कारण रमणीय प्रतीत होने के कारण रामा (पुरिसे हावभावमाइएहिं रमंति ति रामाओ), पुरुषों के अंगों में राग उत्पन्न करने के कारण अंगना (पुरिसे अंगाणुराए करिति त्ति अंगणाओ), अनेक युद्ध, कलह, संग्राम, अटवी, शीत, उष्ण, दुःख, क्लेश आदि उपस्थित होने पर पुरुषों का लालन करने के कारण ललना (नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडवीसु मुहारणगिण्हणसीउण्हदुक्खकिलेससमाइएसु पुरिसे लालंति त्ति ललणाओ), योग-नियोग आदि द्वारा पुरुषों को वश करने के कारण योषित् (पुरिसे जोगनिओएहिं वसे ठाविंति त्ति जोसियाओ), तथा पुरुषों का अनेक प्रकार के भावों द्वारा वर्णन करने के कारण वनिता (नाणाविहेहिं भावहिं वणिति त्ति वण्णिआओ) कहा है ।' विजयविमल ने इस पर वृत्ति लिखी है।
१. संयुत्तनिकाय के सलायतन-वग्ग के अन्तर्गत मातुग्गामसंयुत्त में बुद्ध भगवान् ने पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक दुःखभागिनी माना है। उन्हें पाँच कष्ट होते हैं-बाल्यकाल में माता-पिता का घर छोड़ना पड़ता है, दूसरे के घर जाना पड़ता है, गर्भधारण करना पड़ता है, प्रसव करना पड़ता है, पुरुष की सेवा करनी पड़ती है। भरतसिंह उपाध्याय, पालि साहित्य का इतिहास, पृष्ठ १६८ ।