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९२ प्राकृत साहित्य का इतिहास
पण्हवागरणाई (प्रश्नव्याकरण) प्रश्नव्याकरण को पण्हवागरणदसा अथवा वागरणदसा के नाम से भी कहा गया है ।' प्रश्नों के उत्तर (वागरण) रूप में होने के कारण इसे पण्हवागरणाई नाम दिया गया है; यद्यपि वर्तमान सूत्र में कहीं भी प्रश्नोत्तर नहीं हैं, केवल आस्रव और संवर का वर्णन मिलता है। स्थानांग और नन्दीसूत्र में जो इस आगम का विषय-वर्णन दिया है, उससे यह बिलकुल भिन्न है। नन्दी के अनुसार इसमें प्रश्न, अप्रश्न, प्रश्नाप्रश्न और विद्यातिशय आदि की चर्चा है जो यहाँ नहीं है। स्पष्ट है कि मूल सूत्र विच्छिन्न हो गया है। इसमें दो खंड हैं। पहले में पाँच आस्रवद्वार और दूसरे में पाँच संवरद्वारों का वर्णन है। अभयदेव ने इस पर टीका लिखी है जिसका संशोधन निवृतिकुल के द्रोणाचार्य ने किया था । नयविमल ने भी इस पर टीका लिखी है।
पहले खण्ड के पहले द्वार में प्राणवध का स्वरूप बताया है। त्रस-स्थावर जीवों का वध करने से या उन्हें कष्ट पहुँचाने से हिंसा का पाप लगता है। हिंसकों में शौकरिक (सूअर का शिकार करनेवाले ), मच्छबंध (मच्छीमार), शाकुनिक (चिड़ीमार ), व्याध, वागुरिक (जाल लगाकर जीव-जन्तु पकड़नेवाले ) आदि का उल्लेख है। शक, यवन, बब्बर, मुरुंड, पक्कणिय, पारस, दमिल, पुलिंद, डोंब, मरहट्ठ आदि म्लेच्छर जातियों के नाम गिनाये हैं। फिर आयुधों के नाम हैं। दूसरे द्वार में मृषावाद का विवेचन है। मृषावादियों में जुआरी, गिरवी रखनेवाले, कपटी, वणिक् , हीन-अधिकतोलनेवाले, नकली
१. अभयदेव की टीका के साथ १९५९ में आगमोदय समिति द्वारा बंबई से प्रकाशित; अमूल्यचन्द्रसेन, ए क्रिटिकल इन्ट्रोडक्शन टु द पण्हवागरणम्, वुर्जवर्ग, १९३६ ।। ___२. इन जातियों के लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशियेंट इंडिया ऐज़ डिपिक्टेड इन जैन कैनन्स, पृष्ठ ३५८६६ ।