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रायपसेणइय
१०७ चैत्य था जो एक वनखंड से शोभित था। इस वनखंड में अनेक प्रकार के वृक्ष लगे थे। चंपा में राजा भंभसार (बिंबसार) का पुत्र कूणिक (अजातशत्रु ) राज्य करता था। एक बार श्रमण भगवान महावीर अपने शिष्यसमुदाय के साथ विहार करते हुए चंपा में आये और पूर्णभद्र चैत्य में ठहरे | अपने वार्तानिवेदक से महावीर के आगमन का समाचार पाकर कूणिक बहुत प्रसन्न हुआ और अपने अन्तःपुर की रानियों आदि के साथ महावीर का धर्म श्रवण करने के लिये चल पड़ा। महावीर ने निग्रंथ प्रवचन का उपदेश दिया ।
उस समय महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम इन्द्रभूति वहीं पास में ध्यान में अवस्थित थे। महावीर के समीप उपस्थित हो उन्होंने जीव और कर्म के संबंध में अनेक प्रश्न किये | इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए महावीर ने दण्ड के प्रकार, विधवा खियों, व्रती और साधुओं, गंगातट पर रहनेवाले वानप्रस्थी तापसों, श्रमणों, ब्राह्मण और क्षत्रिय परिव्राजकों, अम्मड परिव्राजक और उसके शिष्यों, आजीविक तथा अन्य श्रमणों और निह्नवों का विवेचन किया । जन्म-संस्कारों और ७२ कलाओं का उल्लेख भी यहाँ किया गया है। अन्त में सिद्धशिला का वर्णन है ।
रायपसेणइय ( राजप्रश्नीय) राजप्रश्नीय की गणना प्राचीन आगमों में की जाती है । इसके दो भाग हैं जिनमें २१७ सूत्र हैं। मलयगिरि ( ईसवी
१. नन्दीसूत्र में इसे रायपसेणिय कहा गया है । मलयगिरि ने रायपसेणीअ नाम स्वीकार किया है । डाक्टर विंटरनीज़ के अनुसार मूल में इस आगम में राजा प्रसेनजित् की कथा थी, बाद में प्रसेनजित् के स्थान में पएस लगाकर प्रदेशी से इसका सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश की गयी। आगमोदयसमिति ने इसे १९२५ में प्रकाशित किया था। गुजराती अनुवाद के साथ इसका सम्पादन पंडित बेचरदास जी ने किया है जो वि० संवत् १९९४ में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है।