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प्राकृत साहित्य का इतिहास धर्मसागरोपाध्याय ने वि० सं० १६३६ में टीका लिखी जिसे उन्होंने अपने गुरु हीरविजय के नाम से प्रसिद्ध किया । पुण्यसागरोपाध्याय ने वि० सं० १६४५ में इसकी टीका की रचना की; यह टीका अप्रकाशित है। उसके बाद बादशाह अकबर के गुरु हीरविजय सूरि के शिष्य शान्तिचन्द्रवाचक ने वि० सं० १६५० में प्रमेयरत्नमंजूषा नाम की टीका लिखी।' ब्रह्मर्पि ने एक दूसरी टीका लिखी, यह भी अप्रकाशित है। अनेक स्थानों पर त्रुटित होने के कारण प्रमेयरत्नमंजूषा टीका की पूर्ति जीवाजीवाभिगम आदि के पाठों से की गई है। यह ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है-पूर्वार्ध और उत्तरार्ध । पूर्वार्ध में चार और उत्तरार्ध में तीन वक्षस्कार हैं जो १७६ सूत्रों में विभक्त हैं । पहले वक्षस्कार में जम्बूद्वीपस्थित भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) का वर्णन है जो अनेक दुर्गम स्थान, पर्वत, गुफा, नदी, अटवी, श्वापद आदि से वेष्टित है, जहाँ अनेक तस्कर, पाखंडी, याचक आदि रहते हैं और जो अनेक विप्लव, राज्योपद्रव, दुष्काल, रोग आदि से आक्रान्त है। दूसरे वक्षस्कार में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का वर्णन करते हुए सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा सुषमा नाम के छह कालों का विजेचन है। सुषमा-सुषमा काल में दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन है जिनसे इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है। सुषमा-दुषमा नाम के तीसरे काल में १५ कुलकरों का जन्म हुआ जिनमें नाभि कुलकर की मरुदेवी नाम की पत्नी से आदि तीर्थंकर ऋषभ उत्पन्न हुए। ऋषभ कोशल के निवासी थे, तथा वे प्रथम
१. यह ग्रन्थ शान्तिचन्द्र की टीका के साथ देवचन्द लालभाई ग्रन्थमाला में निर्णयसागर प्रेस, बंबई में १९२० में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ की चूर्णी देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्यांक ११० में छप रही है। कुछ मुद्रित फर्मे मुनि पुण्यविजयजी की कृपा से देखने को मुझे मिले। दिगम्बर आचार्य पद्मनन्दिमुनि ने भी जम्बुद्दीवपन्नत्ति की रचना की है । देखिये आगे चौथा अध्याय ।