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१०० प्राकृत साहित्य का इतिहास निवेदन किया। लेकिन भद्रबाहु ने उत्तर दिया-दुर्भिक्ष के कारण मैं महाप्राण का अभ्यास नहीं कर सका था, अब कर रहा हूँ, इसलिये दृष्टिवाद की वाचना देने में असमर्थ हूँ। यह बात संघाटक ने पाटलिपुत्र लौटकर संघ से निवेदन की। संघ ने फिर से संघाटक को भद्रबाहु के पास भेजा और पुछवाया कि संघ की आज्ञा उल्लंघन करनेवाले को क्या दंड दिया जाए ? अन्त में निश्चय हुआ कि किसी मेधावी को भद्रबाहु के पास भेजा जाये और वे उसे सात वाचनायें दें। स्थूलभद्र को बहुत से साधुओं के साथ भद्रबाहु के पास भेजा गया। धीरे-धीरे वहाँ से सब साधु खिसक आये, अकेले स्थूलभद्र रह गये | महाप्राण व्रत किंचित् अवशेष रह जाने पर एक दिन आचार्य ने स्थूलभद्र से पूछा-"कोई कष्ट तो नहीं है ?" स्थूलभद्र ने उत्तर दिया"नहीं।" उन्होंने कहा-"तुम थोड़े दिन और ठहर जाओ, फिर मैं तुम्हें शेष वाचनायें एक साथ ही दे दूंगा।" स्थूलभद्र ने प्रश्न किया-"कितना और बाकी रहा है ?" आचार्य ने उत्तर दिया"अठासी सूत्र ।" उन्होंने स्थूलभद्र को चिन्ता न करने का आश्वासन दिया और कहा कि थोड़े ही समय में तुम इसे समाप्त कर लोगे। कुछ दिन पश्चात् महाप्राण समाप्त हो जाने पर स्थूलभद्र ने भद्रबाहु से नौ पूर्व और दसवें पूर्व की दो वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसके बाद वे पाटलिपुत्र चले गये । आगे चलकर भद्रबाहु ने उन्हें शेष चार पूर्व इस शर्त पर पढ़ाये कि वे इनका ज्ञान और किसी को प्रदान न करें। उसी समय से दसवें पूर्व की अन्तिम दो वस्तुएँ तथा बाकी के चार पूर्व व्युच्छिन्न हुए माने जाते हैं।
१. भिक्षाचर्या से आये हुए को, २ दिवसाध की कालवेला में, ३ संज्ञा का उत्सर्ग करके आये हुए को, ४ विकाल में, ५.८ आवश्यक की तीन प्रतिपृच्छा।
२. आवश्यकसूत्र, हरिभदटीका, पृष्ठ ६९६ अ-६९८; हरिभद्र, उपदेशपद और उसकी टीका, पृष्ठ ८९ ।