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८२ प्राकृत साहित्य का इतिहास तेल का उल्लेख है । रत्नद्वीप में अश्वरूप-धारी एक वक्ष रहता था।'
दसवें अध्ययन में चन्द्रमा की हानि-वृद्धि का दृष्टान्त देकर जीवों की हानि-वृद्धि का प्ररूपण किया है। __ ग्यारहवें अध्ययन का नाम दावद्दव है | दावद्दव एक प्रकार के सुन्दर वृक्षों का नाम है जो समुद्रतट पर होते थे। झंझावात चलने पर इस वृक्ष के पत्ते झड़ जाते थे । वृक्ष के दृष्टान्त द्वारा श्रमणों को उपदेश दिया गया है।
बारहवें अध्ययन में परिखा के जल के दृष्टान्त से धर्म का निरूपण किया है । चातुर्याम धर्म का यहाँ उल्लेख है।
तेरहवें अध्ययन में दर्दुर ( मेंढक ) की कथा है। राजगृह नगर में नंद नामका एक मणिकार (मनियार ) श्रेष्टी रहता था। उसने वैभार पर्वत के पास एक पुष्करिणी खुदवाई और उसके चारों ओर चार बगीचे लगवाये । पूर्व दिशा के बगीचे में उसने एक चित्रसभा, दक्षिण दिशा के बगीचे में एक महानसशाला (रसोईशाला), पश्चिम दिशा के बगीचे में एक चिकित्सालय और उत्तर दिशा के बगीचे में एक अलंकारियसभा (जहाँ नाई हजामत आदि बनाकर शरीर का अलंकार करते . हों-सैलून) बनवाई। अनेक राहगीर, तृण ढोने वाले, लकड़ी ढोनेवाले, अनाथ, भिखारी आदि इन शालाओं से पर्याप्त लाभ उठाते | एक बार नंद श्रेष्ठी बीमार पड़ा और अनेक औषधोपचार करने पर भी अच्छा न हुआ | मर कर वह उसी पुरकरिणी में मेंढक हुआ | कुछ दिन बाद राजगृह में महावीर का समवशरण आया और यह मेंढक उनके दर्शनार्थ चला | लेकिन मार्ग में
1. मिलाइये वलाहस्स जातक ( १९६ ) के साथ । दिव्यावदान में भी यह कथा आती है। : २. विहार का प्रदेश आजकल भी पुष्करिणियों (पोखरों) से सम्पन्न है, पोखर खुदवाना यहाँ परम धर्म माना जाता है।