________________
वियाहपण्णत्ति म्लेच्छ जातियों का यहाँ उल्लेख है। फिर पूरण गृहपति की दानामा प्रव्रज्या का वर्णन है। संलेखना द्वारा भक्त-पान का त्याग करके उसने देवगति प्राप्त का। इस प्रसंग पर देवेन्द्र
और असुरेन्द्र के युद्ध का वर्णन किया गया है। असुरेन्द्र भाग कर महावीर की शरण में गया और देवेन्द्र ने अपने वज्र का उपसंहार किया ।' तीसरे उद्देशक में समुद्र में ज्वार-भाटा आने के कारण पर प्रकाश डाला गया है। चौथे और पाँचवें शतकों में भी दस-दस उद्देशक हैं। पाँचवें शतक में प्रश्न किया गया है कि क्या शक्रदूत हरिणेगमेषी गर्भहरण करने में समर्थ है ? देवों द्वारा अर्धमागधी भाषा में बोले जाने का उल्लेख है। फिर उद्योत और अंधकार के कारण पर प्रकाश डाला गया है। सातवें शतक के छठे उद्देशक में अवसर्पिणी काल के दुषमा-दुषमा काल का विस्तृत वर्णन है। महाशिला कंटक और रथमुशल संग्राम का उल्लेख है। इन संग्रामों में वजी विदेहपुत्र कूणिक की जीत हुई और १८ गणराजा हार गये । आठवें शतक के पाँचवें उद्देशक में आजीविकों के प्रश्न प्रस्तुत किये हैं। आजीविक सम्प्रदाय के आचार-विचार का यहाँ उल्लेख है। नौवें शतक के दूसरे उद्देशक में चन्द्रमा के प्रकाश के संबंध में चर्चा है। बत्तीसवें उद्देशक में वाणियगाम (बनिया) के गांगेय नामक पार्खापत्य द्वारा पूछे हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा है। गांगेय अनगार ने अन्त में चातुर्याय धर्म का लेते थे। तथा देखिये सूत्रकृतांग (३.३.१८), आवश्यकचूर्णी, पृष्ठ १२०, वसुदेवहिण्डी ( इस पुस्तक का चौथा अध्याय ); बृहत्कथाकोश (३.२), महाभारत (२.२९.४४, ३.१४२.२४ इत्यादि); जरनल ऑव द यू० पी० हिस्टोरिकलं सोसायटी, जिल्द १७, भाग १, पृष्ठ ३५ पर डाक्टर मोतीचन्द का लेख ।
१. टोकाकार का इस संबंध में कथन है कि यहाँ कुछ भाग चूर्णीकार को भी अवगत नहीं, फिर वाचनाभेद के कारण भी अर्थ का निश्चय नहीं हो सका।