Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म | रूप जे मेघ उनके उड़ावन को महा प्रबल पवन ही हो, हे नाथ भव्य जीव रूपी पपऐ ।
सिहारे घामृत रूप पचन के तिसाए तुमहीको महा मेघ जानकर सन्मुख भए देखे हैं तुम्हारी प्रात्यंत मिर्मल कीर्ति तीनलोक में गाई जाती है, तुम्हारे ताई नमस्कार हो तुम कल्प वृक्षहो गुणरूप पुष्पलों से मण्डित मन वांछित फल के देनवाले हो कर्मरूप काष्ठ के काटनेको तीक्षण धार के घारण हारे महा कुठार रूपहो मोहरूप पर्वत के भंजिवे को महा बज्रूप ही हो और दःख रूप अग्नि के बुझावनेको जल रूपहीहो बारम्बार तुमको नमस्कार करू हूँ । हे निर्मल स्वरूप ! तुम कर्मरूप रज के संग से रहित केवल आकाश स्वरूप ही हो इस भांतिइन्दादिक देव भगवान् की स्तुति कर बारम्बार नमस्कार कर ऐरावत गज पर चढ़ाय अयोध्या में लावनेको सनमुख भए अयोध्या श्राय इन्द्र ने माताकी गोद में भगवान्को स्था पन कर परम आनन्द हो तांडव नृत्य करतेभए इस भान्ति जन्मोत्सव कर देव अपने अपने स्थानक को गए माता पिता भगवान को देखकर बहुत हषित भये श्रीभगवान अद्भुत आभूषण से विभूषित हैं और परम सुगन्ध के लेप से चरचित हैं और सुन्दर चारित्र हैं जिनके शरीरकी कान्तिसे दशों दिशा प्रकाशित होरही हैं महा कोमल शरीर है मता भगवान्को देखकर महा हर्षको प्राप्त भई और कहने में न प्राबे सुख जिसका ऐसे परमानन्द सागर में मग्न भई वह माता भगवान् को गोद में लिये ऐसी शोभती भई जैरने उगते सूर्य से पूर्व दिशा शोभे बैलोक्य के ईश्वर को देख नाभिराजा आपको कृतार्थ मानते भए पुन के गात्रको स्पर्श कर नेल हपितभए मन आनन्दित भया समस्त जग विषे मुख्य ऐसा जे जिनराज उन का ऋषभ नाम पर माता पिता सेवा करते भए हाथ के अंगुष्ट में इन्द्रने अमृत रस मेला उसको पाना ।
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