Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पद्म
॥३॥
विषे प्रगट होती भई और अर्धचन्द्राकार ललाट (माथा ) विषे चन्दनका तिलक किया और दोनों भुजों में रत्नों के बाजूबन्द पहराए और श्रीवत्सलक्षण कर युक्त जो हृदय उस पर नक्षत्र माला समान मोतियों का सत्ताईस लड़ीका हार पहराया और अनेक लक्षणके धारक भगवान को महा, मणि मई कड़े पहराये और रत्नमयी कटिसूत्रसे नितम्ब महा शोभायमान भया जैसा पहाड़का तर सांझ की बिजली कर शोभे और सर्व श्रांगूरियों में रत्न जड़ित मुद्रिका पहराई, इस भांति भक्तिकार देवीयों ने सर्व श्राभूषण पहराए और आभूषणों से आपके शरीर को कहां शोभा होय, त्रैलोक्य के आभूषण श्री भगवान के शरीर की ज्योति से प्राभूषण अत्यन्त ज्योति को घरते भए, और कल्प वृक्ष के फूलोंसे युक्त जो उत्तरासन सो भी दिया, जैसे तारों से आकाश शोभे है तैसे पुष्पन कर यह उत्तरासन शोभे है और पारिजात सन्तानकादिक जो कल्प वृक्ष उनके पुष्पों से सेहरा रचकर सिर पर पधराया जिसपर भूमर गुंजार करे हैं । इस भांति त्रैलोक्य भूषणको आभूषण पहराय इन्द्रादिक देव स्तुति करते भए, हे देव कालके प्रभावसे इस जगहमें धर्म नष्ट हो गया है और महा अज्ञान अन्ध कार फेल रहाहै इस जगतमें भूमण करते भव्य जीवों के मोह तिमिर के हरणेको तुम सूर्य उगे हो है। जिनचंद्र तुम्हारे बचन रूपकिरणों से भव्य जीव रूपी कुमुदनीकी पंक्ति प्रफुलित होवेगी, भव्योंको तत्वके दिखावनेके अर्थ इस जगत् रूप घरमें तुम केवल ज्ञानमयी दीपक प्रकट भये हो और पाप रूप शत्रुओं के नाशने के लिये मानो तुम तीक्ष्ण वाणही हो और तुम ध्यानाग्नि कर भव अटवी [जंगल] को भस्म करणे वाले हो और दुष्ट इन्द्रि रूप जो सर्प तिनक वशीकरण के अर्थ तुम गरुड़ रूपहीहो और संदेह
For Private and Personal Use Only