________________
(२)
कल्याणकारके
भगवान् आदिनाथसे प्रार्थना । तं तीर्थनाथमधिगम्य विनम्य मूर्ना सत्यातिहार्यविभवादिपरीतमूर्तिम् सप्रश्रयं त्रिकरणोरुकृतप्रणामाः
पप्रच्छरित्थमखिलं भरतेश्वरायाः॥२॥ भावार्थ:-अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, चामर, रत्नमय सिंहासन, भामण्डल व देवदुंदुभिरूप अष्टमहाप्रिितहार्य व बारह प्रकारकी सभावोंसे वेष्टित श्रीऋषभनाथ तीर्थकरके समवसरणमें भरत चक्रवर्ती आदिने पहुंच कर विनयके साथ त्रिकरणशुद्धिसे त्रिलोकीनाथ को नमस्कार किया एवं निम्नलिखित प्रकार पूछने लगे ॥२॥
प्राग्भोगभूमिषु जना जनितातिरागाः कल्पद्रुमापितसमस्तमहोपभोगा; दिव्यं सुखं समनुभूय मनुष्यभावे
स्वर्ग ययुः पुनरपीष्टसुखं सुपुण्याः ॥३॥ भावार्थ:- प्रभो ! पहिले दूसरे तीसरे कालमें जब कि यहां भोगभूमिकी दशा थी लोग परस्पर एक दूसरे को अत्यंत स्नेहकी दृष्टि से देखते थे एवं उन्हे कल्पवृक्षोंसे अनेक प्रकारके इच्छित सुख मिलते थे । मनुष्यभवमें जन्मभर उत्कृष्टसे उत्कृष्ट सुख भोग कर वे पुण्यात्मा भोगभूमिज जीव इष्टसुख प्रदायक स्वर्गको प्राप्त होते थे ॥ ३ ॥
अत्रीपपादचरमोत्तमदेहिवर्गाः पुण्याधिकास्त्वनपवर्त्यमहायुषस्ते अन्येऽपवर्त्यपरमायुष एव लोके
तेषां महद्भयमभूदिह दोषकोपात् ॥ ४॥ भावार्थ:- इस क्षेत्रको भोगभूमिका रूप पलटकर कर्मभूमिका रूप मिला ।। फिर भी उपपादशय्यामें उत्पन्न होनेवाले देवगण, चरम व उत्तम शरीरको प्राप्त करनेवाले पुण्यात्मा, अपने पुण्यप्रभावसे विषशस्त्रादिकसे अपघात नहीं होनेवाले दीर्घायुषी शशरके ही प्राप्त करते हैं । परंतु विषशस्त्रादिकसे घात होने योग्य शरीरको धारण करनेवाले भी बहुतसे मनुष्य उत्पन्न होने लगे हैं । उनको वात, पित्त व कफके उद्रेकसे महाभय उत्पन्न होने लगा है ॥ ४ ॥
देव ! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ शीतातितापहिमवृष्टिनिपीडितानां कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम् ॥ ५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org