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शास्त्र संग्रहाधिकारः ।
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विधान भी किया गया है । अब पंद्रह प्रकार के औषधकर्म व उन के गुण, दश औषधसम्पूर्ण घृततैलों के पाक का विकल्प ( भेद ) रस के त्रेसठ भेद, अरिष्टलक्षण, मर्मस्थान, इन को संक्षेप से आगे आगमानुसार कहेंगे ॥ १६ ॥
काल,
दशऔषधकाल.
संशमनाग्निदीपनरसायनबृंहणलेखनोक्तसां - । ग्राहिक वृष्यशोषकरणान्विततद्विलयमधोर्ध्वभा ॥ गोभयभागशुद्धिसविरेक विपाणि विषौषधान्यपि । माहुरशेषभेषजकृताखिलकर्म समस्त वेदिनः ॥ १७ ॥
भावार्थ:-- १ संशमन, २ अग्निदीपन, ३ रसायन, ४ बृंहण, ५ लेखन, ६ संग्रहण, ७ वृष्य, ८ शोषकरण, ९ विलयन, १० अधः शोधव, ११ ऊर्ध्वशोधन, १२ उभयभागशोधन, १३ विरेचन, १४ विष, १५ विषौषध, ये सम्पूर्ण औषधियों
के पंद्रह कर्म हैं ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है ॥ १७ ॥
दशऔषधकाल.
निर्भक्त, प्राग्भक्त, ऊर्ध्वभक्त व मध्यभक्तलक्षण. प्रातरिहौषधं बलवतामखिलामयनाशकारणं । प्रागपि भक्ततो भवति शीघ्रविपाककरं सुखावहम् ॥ ऊर्ध्वमथाशनादुपरि रोगगणानपि मध्यगं । स्वमध्यगान्विनाशयति दत्तमिदं भिषजाधिजानता ॥ १८ ॥
भावार्थ: - १ निर्भक्त, २ प्राग्भक्त, ३ ऊर्ध्वभक्त ४ मध्यभक्त, ५ अंतराभक्त, ६ सभक्त, ७ सामुद्र, ८ मुहुर्मुहु, ९ ग्रास, १० ग्रासांतर ये दस औषधकाल [ औषध सेवन का समय ] है । यहां से इसी का वर्णन आचार्य करते हैं । अन्नादिक का बिलकुल सेवन न कर के केवल औषधका ही उपयोग प्रातःकाल, बलवान् मनुष्यों के लिये ही किया जाता है उसे निर्भक्त कहते हैं । इस प्रकार सेवन करने से औषध अत्यंत वीर्यवान् होता है । अतएव सर्वरोगों को नाश करने में समर्थ होता है । जो औषध भोजन के पहिले उपयोग किया जावे उसे प्राग्भक्त कहते हैं । यह काल शीघ्र
१ इस प्रकार के औषध सेवन को बलवान् मनुष्य ही सहन कर सकते हैं । बालक, बूढ़े, स्त्री कोमल स्वभाव के मनुष्य ग्लानि को प्राप्त करते हैं ।
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२ तत्र निर्भक्तं केकलमेवौषधमुपयुज्यते " इति ग्रंथांतरे ।
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