________________
शास्त्रसंग्रहाधिकारः ।
कारः।
(५२९)
भावार्थ:--स्नेहनादि प्रयोग से जिन का अग्निमंद हो गया हो, उन के तीन प्रकार के अग्नि ( मंदतर, मंदतम, मंद ) के अनुसार क्रमशः तीन २ दिन, दो २ दिन एक २ दिन तक गरम जल, गरम कर के ठंडा किया हुआ जल, यवागू, विलेपी, यूप, धूप्य, [2] घी हींग आदि से असंस्कृतखल व संस्कृतखल, अल्पघृतयुक्तभोजन, अधिकवृतयुक्तभाजन को एक के बाद एक इस प्रकार अग्निवृद्धि करने के लिये देते जावें ॥ ११ ॥
भोजन के बारह भेद.
शीत व उष्णलक्षण.
दाहतपातिसोष्णमदमबहतानतिरक्तपित्तिनः । स्त्रीव्यसनातिमूर्छनपरानपि शीतलभोजनभृशम् ।। पीतघृतान्विरोचिततनूननिलातिवलासरोगिणः । क्लिन्नमलानरानपिकमुष्णतरैः समुपाचरेत्सदा ।। १२ ।।
भावार्थ:-जो रोगी दाह, तृषा, गरमी, भद, मद्य, रक्तपित्त, स्त्रीव्यसन ( मैथुन ) व मूर्छा से पीडित हैं, उन्हें शीतल भोजन के द्वारा उपचार करना चाहिये। जिन्होंने धृत [स्नेह ] पीया हो, जिन को विरेचन दिया हो, जो वात व कफ के विकार ...से पीडित हों, एवं जिनका मल लेदयुक्त हो रहा हो, उन को अत्यंत उष्णभोजनों से उपचार करना चाहिये ॥ १२ ॥
स्निग्ध, रूक्ष, भोजन. वातकृतामयानतिविरूक्षतनूनधिकव्यवायिनः । क्लेशपराविशेषबहुभक्षणभोजनपानकादिभिः ॥ स्नेहयुतैः कफःप्रबलतुंदिलमेहिमहातिमेदसो ।
रूक्षतरैनिरंतरमरं पुरुषानशनैः समाचरेत् ॥ १३ ॥ भावार्थ:---जो बातव्यापिसे ग्रस्त है जिनका शरीर रूक्ष है, जो अधिक मैथुन सेवन करते हैं व अधिक परिश्रम करते हैं उन को अधिक स्नेह ( घी, तेल आदि ) संयुक्त अनेक प्रकार के भक्ष्य भोज्य पानक आदियों से उपचार करना चाहिये । कफाधिक्य से युक्त हो, तुंदिल हो [ पेट बढ़ गया हो, ] विशिष्ट प्रमेही हो, मेदोवृद्धि से युक्त हो, उन्हे रूक्षं व कर्कश [ कठिन ] आहारोंसे उपचार करना चाहिये ॥ १३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org