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शास्त्रसंग्रहाधिकारः।
( ५१९)
कृकाटिका विधुर मर्मलक्षण. ग्रीवासंधावपि च शीर्षत्वकृन्मर्मणी द्वे । स्यातां मृत्योनिलयनिजरूपे कृकाटाभिधाने ।। कर्णस्याधी विधुर इति मर्मण्यथा कर्णसंधौ ।।
बाधिय स्यादुपहतवती प्रोक्त तत्पृष्टभागे ॥ ६७ । भावार्थ:---.कंठ और शिर की संधिमें मस्तक के बराबर रहनेवाले दो मर्म स्थान होते हैं जो साक्षात् मृत्यु के समान होते हैं । उनका नाम " कृकाटिका" हैं। [ इन में चोट लगने से शिरकम्पने लगता है ] कान के नीचे पीछे के भाग में कान की संधि में “ विधुर " नाम के दो मर्म हैं । वहां चोट लगने से बहरापन हो जाता है ॥ ६७ ॥
फण अपांगमर्मलक्षण. घ्रांणस्यांतर्गतमुभयतः स्रोतसो मार्गसंस्थे । मर्मण्येतेऽप्यभिहतफणे तत्र गंधप्रणाशः ॥ अक्ष्णोबांधे प्रतिदिनकटाक्षेऽप्यपांगाभिधाने ।
मर्मण्यांध्यं जनयव इतस्तत्र घातान्नराणां ।। ६८ ॥ भावार्थः-नाक के अंदर दोनों बाजू , छिद्र के [सूराक] मार्ग में रहनेवाले अर्थात् छिदमाग से प्रतिबद्ध, "फण” नामक दो मर्म रहते हैं । वहां आघात पहुंचनेसे, गंधग्रहण शक्ति का नाश होता है । आंखों के बाहर के भाग में ( भ्रुकुटी पुच्छ से नीचे को.) " अपांग " नाम के दो मर्म हैं । वहां चोट लगने से अंधापन हो जाता है ।। ६८ ॥
शंख, आवर्त, उत्क्षेपक, स्थपनी सीमेतमर्मलक्षण. भूपुच्छोपर्यनुगतललाटानुकणे तु शंखौ- । ताभ्यां सद्यो मरणमथ मर्मभ्रुवोरूवभागे ॥ आवाख्यावमलनयनध्वंसिनी दृष्ट्युपना-। व्युत्क्षेपावप्युपरि च तयोरेव केशांतजातौ ॥ जीवेत्तत्र क्षतवति सशल्येऽथवा पाकपाता- । भद्रमध्ये तत्तदिव विदितं स्यात् स्थपन्येकमर्म ।। पंचान्ये च प्रविदितमहासंधयश्चोत्तमांगे । सीमंताख्यो मरणमपि दुश्चित्तनाशोन्मदैश्च ॥ ५० ॥
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