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सौषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः ।
(६७१)
भावार्थ:----दोषों के प्रमाण [बलावल ] के अनुसार मृतरस को सुवर्ण से विस कर अच्छी तरह पके हुए दूध में गुड के साथ रोज रोगी सेवन करें । तदनंतर स्त्रीदुग्च का नत्य देना चाहिये । बाद में स्त्रियों के हाथ से शरीर का मर्दन कराना चाहिये ॥६॥
अनेन विधिना शरीरमखिलं रसः कामति । प्रयोगवशतो रसक्रमण एव विज्ञायते ।। सुवर्णपरिघर्षणादधिकवीर्यनीरोगता।
रसायन विधानमप्यनुदिनं नियोज्यं सदा ॥ ७ ॥ भावार्थ:---इस प्रकारकी विधिसे रसका संवन करनेपर वह रस शरीर के सर्व अवयवोंमें व्याप्त होजाता है । प्रयोग करनेकी कुशलतासे रस, का सर्व शरीर व्याप्त होना भी मालुम होता है। सुवर्णके घर्षण करने से अधिक वीर्य की प्राप्ति | शक्ति व निरोगता होती है । इस के साथ रसायन विधान की भी प्रतिदिन योजना करनी चाहिये ॥ ७ ॥
बद्धरसका गुण रसः खलु रसायनं भवति बद्ध एव स्फुटं। न चापरसपूरिलोहगणसंस्कृती भक्ष्यते ॥ ततस्तु खलु रोगकुष्टगणसंभवस्सर्वथे- ।
त्यनिंद्यरसबंधनं प्रकटमत्र संबंध्यते ॥ ८ ॥ भावार्थ:-विधिपूर्वक बंधन किया हुआ रस [बद्ध रस ] रसायन होता है। इस से दूसरे रसयुक्त लोहगणों के द्वारा संस्कृत ( बद्ध ) रसों को नहीं खाना चाहिये ऐसे रसों को यदि खावे तो कुष्ठ आदि अनेक रोग समूइ उत्पन्न होते हैं । इसलिये बिलकुल दोषरहित रसबंधन विधान को यहां कहें। ॥ ८॥
रसबंधन विधि. अशेषपरिकर्मविश्रुतसमस्तपाठादिक-। क्रमगुरुपरः सदैव जिननाथमभ्यर्चयन् ॥ प्रधानपरिचारकोपकरणार्थसंपत्तिमान् ।
रसेंद्रपरिबंधनं प्रतिविधातुमत्रोत्सहे ॥ ९ ॥ भावार्थ:---रसबंधनावि के शास्त्र को जाननेवाला वैद्य प्रधानपरिचारक, रसबंधन के लिये आवश्यक समस्त उपकरण, अर्थ ( ३०३ ) संपत्ति व गुरुभक्ति से
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