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( ७२६ )
कल्याणकारके
तन्मांसं पापजन्यव्याधेः प्रतीकारं न भवत्येवेति निमित्तेनाप्युक्तम् ||
पापजत्वात्रिदोषत्वान्मधातुनिबंधनात् । आमयानां समानत्वान्मांसं न प्रतिकारकम् ।
तथा चरकेऽप्युक्तम् ।
सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम् । ह्रासहेतुर्विशेषास्तु प्रकृतेरुभयस्य च ॥
इत्येवं सामान्यविशेषात्मकविधिप्रतिषेधयुक्तं । तस्माद्वैद्यशास्त्रत्रमारोग्यनिमित्तमनुष्ठीयते । तचारोग्यं धर्मार्थकाममोक्षसाधनं भवति । नहि शक्यं रोगवतां धर्मादीनि प्रसाधयितुमिति । उक्तं हि :
न धर्म चिकीर्षेत न वित्तं चिकीर्षेत् न भोगान्बुभुक्षेत् न मोक्षं इयासीत् । अनारोग्ययुक्तः सुधीरोपि मर्त्यश्चतुवर्गसिद्धिस्तथारोग्यशास्त्रम् ॥
यह प्राणिमात्र ही कर्मजन्य है । प्राणियों के रोग भी कर्मजन्य हैं । जिसप्रकार कर्मके विना रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होसकती है, उसी प्रकार कर्मके बिना पुरुष की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । वह मांस पापजन्य व्याधियोंका प्रतीकारक नहीं होरुकता हैं, इसप्रकार निमित्तशास्त्र में ( निदानशास्त्र ) भी कहा है ।
पाप से उत्पन्न होने से, त्रिदोषोंके उद्रेक के लिए कारणीभूत होने से, मल [ दोषपूर्ण ] धातुवों के कारण होनेसे, रोगों के कारणों की समानता होने से, रोगों के लिए मांस कभी प्रतीकारक नहीं होसकता ।
इसीप्रकार चरकने भी कहा है ।
पडता
किसी भी समय प्रत्येक पदार्थ का सामान्य धर्म उसकी वृद्धि के लिये कारण है 1 और विशेष धर्म उस के क्षय के लिए कारण पडता है । एवं सामान्य व विशेष दोनोंकी प्रवृत्ति वृद्धिहानि दोनों के लिए कारण होजाती है । अर्थात् सामान्य विशेष की प्रवृत्ति का संबंध शरीर के साथ रहा करता है |
इस प्रकार सामान्य विशेषात्मक विधिनिषेध से युक्त सर्व पदार्थ है । अतएव वैद्य शास्त्र आरोग्यनिमित्त ग्रहण किया जाता है । वह आरोग्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए साधक होता है । क्यों कि रोगी धर्मादिकोंको साधन नहीं कर सकते। कहा भी है:
१. चरक सूत्रस्थान अ. १ ली. ४४.
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