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कल्याणकारके
तथा कृत्याविषादिरक्षःक्रोधं धर्मादुवंसते जानपदा इति महोपसर्गनिवारणार्थं शांति प्रायश्चित्तमंगल जाप्योपहारदयादानपरैर्भवितव्यामति वचनात्। तथा चरकेऽप्यहिंसा प्राणिनां माणसंवर्द्धना नामेति वचनात् । पैतामहेप्येवमुक्तम् ।
काले व्यायामः सर्पिषश्चैव पानं मोक्षवेनान्मरणं च स्थितानां
भोज्यमात्रावपि शलास्वप्नसेवा भूतेष्वद्रोहश्वायुषो गुप्तिरग्या । तथा चैवं,
सर्वाः क्रियास्वार्था, जीवानां न च मुखं विना धर्मात
इति सुखकामैः प्राज्ञैः पुरैव धर्मो भवति कार्यः ॥ इति प्राज्ञभाषितत्वात् ॥ एवं हि शास्त्रोपोद्घाताच्छ्यते ॥
अवंतिषु तोपेंद्रपृषद्वान्नाम भूपतिः ।। विनयं समतिक्रम्य गोश्चकार वृथा वधम् ॥ ततोऽविनय दुर्भूत एतस्मिन्विहते तथा । विवस्त्रांश्च सुखे दिव्याभिभूतैस्समबाह्यतः ।।
परित्याग करें । एवं एक ही स्थानमें रहना भी आवश्यक है इत्यादि विस्तार से आगे जाकर कहेंगे इस प्रकार ( अन्यत्र ) कहा है ।
इसी प्रकार कृत्या, विषोद्रिक्त, वराक्षसोत्थ क्रोध को प्रजाजन धर्म से नाश करते हैं एवं ऐसे क्रोधसे लोकमें महोपसर्ग उत्पन्न होते हैं। उन के निवारणके लिये शांति, प्रायश्चित्त, मंगलजप, उपहार, दयादान आदि शुभ प्रवृत्तियां करनी चाहिये । इसी प्रकार चरक में भी कहा है कि प्राणियों के प्राण के संवर्द्धन करने से यथार्थ अहिंसा होता है। पैतामह में भी कहा है। यथाकाल व्यायाम करना घृतपान,..... ........सर्व प्राणियोंके प्रति अद्रोह, ये सब आगेके आयुष्यको संरक्षण करने के लिए कारण होते हैं । इसीप्रकार प्राणियोंकी सर्व क्रियारूपप्रवृत्ति सुख के लिए हुआ करती हैं । सुख तो धर्म के विना कभी प्राप्त नहीं होसकता है। अतएव सुख चाहनेवाले बुद्धिमानों को सब से पहिले धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये । इसप्रकार विद्वानोने कहा है एवं आगमो में भी उसी प्रकार का कथन है।
उजयिनी में पृषद्वान नामका राजा था जिसने कि विनय को उल्लंघन कर व्यर्थ ही मोवध किया । तदनंतर बद्द अविनयभूत होकर वह जब यहां से च्युत होगया तो स्वर्ग में सूर्य होकर उत्पन्न हुआ। व. अनेक सुखो में मग्न हुआ । उस के बाद उस
१ यह श्लोक ओक प्रतियों को देखने पर भी अत्यधिक अशुद्ध ही मिला है ।
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