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( ७३६ )
कल्याणकारके
अत्र केचित्पुनश्च्छागमृगवराहादीनामतिस्त्रीव्यसनामलोक्य तद्भक्षकाणामपि तद्वदतिवृष्यं भवतीत्येवं मन्यमानास्संतोपं, ते तस्माद्भक्षयंतीत्येवं तदपहास्यतामुपयांति । कमिति चेत्, न कदाचिदपि छागैइच्छागो भक्षितो, मृगे; मृगो, वराहो वा वराहरित्येतदपहास्य. कारणं । न तु पुनश्च्छागादयश्च्छागादीन् भयित्वातिवृष्या भवतीति दृष्टमिष्टं च । त एते पुनच्छागमुगबराहादयो विविधतरुतृणगुल्मवीरुल्लतावितानाधोपनिषेवणोपशांतव्यावयस्संतुष्टबुद्धयस्सन्नद्धशुद्धधातवः प्रवृद्धाद्यतवृष्यास्सबहुपुत्राश्चापलक्ष्यते । तत एव तृणाशिनां शकृन्मूत्रक्षासण्यापधत्वनांपादीयते । न तु पुनः पिशिताशिनामिति । तथा चोक्तम्----- अजाकिंगोमहिष्यश्व गजखरोष्ट्राणां मूत्राण्यष्टौ कर्मण्यानि भवंति ! तथा चैवम् ॥
आजमौष्टं तथा गव्यमाविकं माहिषं च यत्
अश्वानां च करीणां च मृग्याश्चैव पयस्मृतम् ॥ इयष्टप्रकारक्षीरमूत्राण्यौपधत्वेनोपादीयंते, न तु पिशिताशिनाम् । तथा चोक्तम् ।
____यहां पर कोई कोई इस विचार से कि बकरे, हरिण, वराहादि प्राणियों में अत्यधिक मैथुनसेवन देखा जाता है, अतएव उन के मांस को खाने से भी उन के समान ही अत्यधिक धातुयुक्त शरीर बनता है, संतोष के साथ मांस को खाते हुए उपहास्यता को प्राप्त होते हैं। क्यों कि बकरों ने बकरों को नहीं खाया है, हरिण ने हरिण को नहीं खाया है, एवं वराहों ने वराह को खाकर पौष्टिकता को प्राप्त नहीं की है । यही 'अपहास्य कारण है । छागादिक प्राणी छागादिकों को खाकर ही पुष्ट होते हुए न देखे 'गए हैं और न वह इष्ट ही है । परन्तु वे छागादिक प्राणी अनेक प्रकार के वृक्ष, घास, गुल्म, पौत्र, लतारूपी औषधों को सेवन कर के ही अपने अनेक रोगों को उपशांत कर लेते हैं एवं संतुष्ट हो कर, शुद्ध धातयुक्त हो कर, पुष्ट रहते हुए, बहुसंतान वाले देखे जाते हैं । इसीलिए तृणभक्षक प्राणियों के मल, मूत्र, दूध आदिक औषधि के उपयोग में ग्रहण किए जाते हैं । परन्तु मांसभक्षकप्राणियों के ग्रहण नहीं किए जाते हैं। इ. प्रकार कहा भी है
बकरी, मेंढी, गाय, भैंस, घोडी, हथिनी, गवैया, ऊठनी इस प्रकार आट जाति के प्राणियों का दूध औषधि के कार्य में कार्यकारी होते हैं । इसीलिए कहा भी है कि दूध आज [ बकरी का ] औंष्ट्र [ उंठनी का ] गव्य, माहिष, आधिक, आश्वीय, गजसंबंधी, मुग्य इस प्रकार आउ प्रकार से विभक्त है । इसी प्रकार कहा भी है
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