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स्ववचनविरोधित्वात् । तथा चैवं प्रव्यक्तकंठमुक्तं हि मांसं स्वयं भक्षयित्वा वैद्यः पश्चादन्येषां वक्तुं गुणदोषान्विचारयेदिति । तथा चोक्तम् । धान्येषु मसिषु फलेषु कंदशाकेषु चानुक्तिजलममाणात् आस्वाद्य तैर्भूतगणैः प्रसह्य तदादिशेद्रव्यमनरपलुब्धः ॥ ( ? ) क्ष्मां जानि क्ष्मालुतेजः खराट्वग्न्यानिलानिलैः द्वयोयोवणैः क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः ॥ [2] मांसाशिनां च मांसादीन्भक्षयेद्विधिवन्नरः । विशुद्धमनसस्तस्य मांसं मांसेन वर्धते ॥ तथा चरकेऽप्युक्तम् ।
कल्याणकारके
आनूपोदकमांसानां मेध्यानामुपयोजयेत् । जलेशयानां मांसानि प्रसहानां भृशानि च ॥ भक्षयेन्मदिरां सीधुं मधुं चानुपिवेन्नरः ।
तथा चरके शोषचिकित्सायाम् । शोषव्याधिगृहीतानां सर्वसंदेहवर्तिनाम् सर्वसन्यासयोग्यानां, तत्परलोकनिरपेक्षाणामबोगतिनेतृकमनंत संसारतरणात्प्रतिपक्षपक्षावलंबन कांक्षया साक्षात् भिक्षूणां मांसममिमक्षयितुं क्रमं चेत्येवमाह ।
स्ववचन से ही विरोध होने से । कारण कि आप लोगोंने मुक्तकंठ से स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि "वैद्य को उचित है कि वह पहिले स्वयं मांसको खाकर बाद में दूसरोंको उस के गुणदोष का प्रतिपादन करें "। इसी प्रकार कहा भी है:--
धान्य, मांस, फल, कंद व शाक आदि पदार्थों के गुण दोष को कहने के पहिले स्वतः वैद्य उनका स्वाद लेलेवें । बाद में उनका गुण दोष विचार करें ।
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मांस भक्षक प्राणियों के मांस को मनुष्य विधिप्रकार खावें । विशुद्ध हृदयवाले उस मनुष्य का मांस मांससे ही बढता है । इसी प्रकार चरक में कहा हैं । शरीर के लिए पोषक ऐसे आनूपजल व मांस को उपयोग करना चाहिये । जलेशय प्राणियों के मांसको विशेषकर खाना चाहिये । तथा मदिरा, सीधु [ मद्य विशेष ] व मधु को भी पीना चाहिये । इसी प्रकार चरक में शोष चिकित्साप्रकरण में भी कहा है:शोषरोग गृहीत, प्राणके विषय में संदेहवर्ति, और सन्यास के योग्य, अधोगत नेतृक रोगी होनेपर भी अनंत संसार के प्रतिपक्षपक्ष के अवलंबन करने की इच्छा से साक्षात् ऋषियोंको भी मांसभक्षण का समर्थन किया है ।
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