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अथ हिताहिताध्यायः ।
उच्चचार ततोऽन्वक्षं सुकूरोऽवगमानुषे । इतः प्रभृति भूतानि हव्यन्तेऽक्षसुखादिति इमं हि क्रूरकर्माणमात्यजन्तोऽन्वहं नरः । आय प्राप्स्यन्ति दोषत्वं दोषजं चात्मनः क्षयम् ॥ ततो रोगाः प्रजायंते जन्तूनां दोषसंभवाः । उपसर्ग वर्धते नानाव्यंजन वेदनाः ॥
ततस्तु भगवान्वृद्धो दिवोदासो महायशाः । चिन्तयामास प्राणानां शान्त्यर्थे शास्त्रमुत्तमम् ॥
एवं शांतिकर्म कुर्वन्कचिद्भूतवेतालकृत्यादिकं समुत्थापयतीत्येवं वधनिमित्तजातानां रोगाणां कथं वधजनितं मांस प्रशमनकरं, तत्समानत्वात् । तस्य कृतकर्मजातानां जंतूनां व्याधीनां च स्वयमतिपाप निष्ठुरवधहेतुकं मांसं कथं तदुपशमनार्थं योयुज्यते । तथा चरकेयुक्तम्
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( ७२५ )
कर्मजस्तु भवेज्जंतुः कर्मजास्तस्य चामयाः बहते कर्मणा जन्म व्याधीनां पुरुषस्य च । इति
क्रूरने नीच क्रियाप्रिय मनुष्यो में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा का प्रचार किया । उसके बाद इस भूमंडलपर लोग इंद्रिय सुखोंकी इच्छा से यज्ञ में पशु वगैरह की आहुति देते हैं । इस क्रूर कर्म को जो मनुष्य छोड़ते नहीं हैं उनको अनेक दोष प्राप्त होते हैं । दोषों से आत्मा का नाश होता हैं । आत्मा के गुणों के या पुण्य कर्म के अभाव में अनेक रोग जो कि अनेक प्रकार की पीडा से युक्त है प्राप्त होते हैं, ये रोग प्राणियों के पूर्व जन्मकृत दोषों से या पाप कर्मों से उत्पन्न होते हैं । एवं अनेक प्रकार की पीडा से युक्त उपसर्ग भी बढते हैं । तब महायश के धारक ब्रह्मदेवने प्राणियों में शांति स्थापन के लिये जीवों को उत्तम शास्त्र का उपदेश दिया है ।
१ चरक सूत्र स्थान अ. २५ श्लो
इसी प्रकार कोई कोई इस पाप के लिए शांतिकर्म करने की इच्छा रखनेवाले भूत वेताल पिशाच आदि दुष्टदेवोंको उठाकर प्राणियों का वध करते हैं । परंतु समझमें नहीं आता कि हिंसा के निमित्त से उत्पन्न रोगों को हिंसाजनित मांस किस प्रकार शमन कर सकता है ? क्यों कि वह समानकोटमें है । (रक्तसे दूषित वस्त्र रक्तसे ही धोया नहीं जाता है ।) इसीप्रकार प्राणियों के कर्म से उत्पन्न रोगों के उपशमन के लिए स्वयं अत्यंत पापजन्य, निष्ठुर वधहेतुक मांसका प्रयोग क्यों किया जाता है ? इसी प्रकार चरक में भी कहा
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१८ २ मतो. ३ रोगाणां इति मुद्रित पुस्तके..
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