________________
अथ हिताहिताध्यायः।
सर्वथात्यंतहितान्येव भवतीत्येवमिदानी प्रणीतैरेतैरप्यातुरैरात्महितार्थिभिः सततमुपभोक्त' व्यानि स्युस्तथा क्षाराग्निशस्त्रविषाण्यप्यतिनिपुणवैद्यगणैस्तत्तत्साध्यव्याधिषु प्रयुक्तानि प्रत्यक्षतस्तत्क्षणादेव प्रवृद्धव्याध्युपशमनं कृत्वातुरमतिसुखिनमाशु विधायात्यंतहितान्येव भवतीत्येवं सर्वाणि वस्तूनि हितान्येवेति तत्सिद्धं भवति ॥ तथाचोक्तः- विषमपि विषांतकं भवत्याहेयं नहि स्पशंतं मारयति विषं स्वशक्तिमते तदपि मंगदोपयुक्तं स्थावरमंतेनेतरं मनुज ॥
_____ तथा विषोदरचिकित्सायां । परुषविषमविषनिषेवणमप्यौषधमित्युक्तं । यथाःकाकोदन्यश्वमारकगुंजामूलकल्क दापयेत् । इक्षुखंडानि वा कृष्णसर्पण दंशयित्वा भक्षयेत् । मूलजं कंदजं वा विषमासेवेत । तेनागदो भवतीति विषमपि विषोदरिणा निषेवितमविषात्मकमेवामृतमिति वातिसुखाय कल्प्यते। विषस्य विषमौषधमिति वचनात् । तथोक्तं चरके विषचिकित्सायां ।
जंगमं स्यादधोभागमृर्श्वभाग तु मूलजं ।
तस्माइंष्टिविष मौलं हंति मौलं च दंष्ट्रिनम् ॥ तथा चाग्निरप्यग्निविषौषधत्वेनोपदृष्टः ।
प्रवृत्त अग्नि, क्षार, विष आदि हैं। पदार्थोके संयोगसे अन्य भी पदार्थ विषसदृश होते हैं। वे भी एकांतसे अहितकारक हैं ।
[प्र] द्रव्य हिताहितात्मक हैं । जो वातके लिये हितकर है वह पित्तके लिये अहितकर है यह जो कहा गया है वह ठीक नहीं है, ऐसा कहोगे तो हम सवाल करते हैं कि एकांत शद्ध का क्या अर्थ है । उत्तर में एकांतवादी कहता है कि एकांतशब्द . सर्वथा वाची है । कथंचित् वाची [ किसीतरह अन्यरूप भी हो सकेगा ] नहीं है । सर्वथा शब्दका खुलासा इस प्रकार है । सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रकारोंसे हित द्रव्य हितकारक ही होते हैं, अन्यथा नहीं हो सकते । ऐसा कहोगे तो ठीक नहीं है । क्यों कि यदि हितकारक द्रव्य एकांतसे हितकारक ही होंगे तो जो हितद्रव्य हैं उनका उपयोग नवज्वर,
अतिसार, कुष्ठ, भगंदर, नेत्ररोग, व्रण आदि भयंकर रोगोमें भी हितकारक ही सिद्ध होगा। फिर अब उपर्युक्त सभी रोगियोंको अपने रोगोंके उपशमन के लिये हितद्रव्य जो उन रोगोंके लिये उपयुक्त हो चाहे अनुपयुक्त उनका उपयोग करना ही पडेगा। इसीप्रकार . क्षार, अग्नि व विषसदृश पदार्थ किसी किसी रोगको तात्कालिक उपशम करते हुए . प्रत्यक्ष देखे जानेपर सभी रोगोंके लिये अत्यंत हितावह ठहर जायेगे। क्यों कि क्षार, अग्नि, विष आदिसे भी अनेक रोग तत्क्षण साध्य देखे जाते हैं । कहा भी है । विष
१ मंत्र नत्रागदापयुक्तं इति क पुस्तके । २ स्थावरमरनेतरं मनुजा इति क पुस्तके ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org