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रिष्टाधिकारः।
(७१३)
संसारस्य निरूपितानपि जरा जन्मोरुमृत्युक्रमान् ।
देहस्याध्रुवतां विचिंत्य तपसा ज्येष्ठा भवेयुरसदा॥ भावार्थ:-इस प्रकार महामुनि उग्रादित्यःचार्यके वचन के द्वारा प्रकटित स्वस्थ पुरुषों में पाये जानेवाले मरणसूचक चिन्हों को अच्छी तरह समझकर, [२.दि चाह अपने २ शरीर में प्रगट हों तो] मुनिपुंगव, मन में धैर्य स्थैर्य आदिकों को धारण करते हुए एवं संसार का विरूपपना जन्म जरा (बुढापा) मरण इनके क्रम या स्वरूप और शरीर की अस्थिरता आदि बातों को चितवन करते हुए, हमेशा मक्षदायकतप में अप्रेसर होवें ॥ ३७॥
इति जिनबक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरगकुलाकुलतः ॥ उभयवार्थसाधनतटद्वयभामुरतो ।
निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट है। ऐसे श्रीजिनेंद्रमुख से उत्पन्न शात्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाग कल्याण कारक है ] ॥ ३८ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृतकल्याकारणके महासंहितायामुत्तरोत्तरे [ भागे] स्वस्थारिष्टानिष्टदं महारहस्यं महामुनीनां भावनार्थ
मुपदिष्टपरिशिष्टरिष्टाध्यायः ॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक महासंहिता के उत्तर नेत्र के उत्तर भाग में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में स्वस्थो में अनिष्टद अरिष्टसूचक, महामुनियोंको भावना करने के लिये उपदिष्ट, परम रहस्य
को वर्णन करनेवाला परिशिष्टरिष्टाध्याय समाप्त ।
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