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कल्याणकारके
खे कृशाग्निप्रतपनं कार्यमुष्णं च भेषजम् । इति .. दहेदंशपथोत्कृत्य यत्र बंधो न शक्यते ।
आचूषणच्छेददाहाः सर्वत्रैव च पूजिताः ॥ तथा चैवमतिनिशितऋरशस्त्राण्यपि प्रयुक्तानि स्रावणविधावतिसुखकराणि भवेयुरिपेवमुक्तं च ।
लाघवं वेदनाशांतिधेिर्वेगपरिक्षयः । सम्यग्विनिमृते लिंगं प्रसादो मनसस्तथा ॥ .
सुश्रुत अ. १४ श्लो. ३३ इत्येवमग्निशारशस्त्रविषाणि हिताहितान्येव सर्वथेति प्रतिपादयतः स्ववचन । विरोधदोषोऽप्यतिप्रसज्येत । तथास्तति चेत् चिकित्सा तु पुनरसर्वप्राणिनां सर्वव्याधिप्रशमनविषक्षारास्त्राग्निभिः चतुर्भिस्तथा प्रवर्तते कभिनिवर्त्यते ॥ तथा चोक्तम् ।
कर्मणा कश्चिदेकन द्वाभ्यां कश्चित्रिभिस्तथा । विकारस्साध्यते कश्चिच्चतुर्भिरपि कर्मभिः ।
भी विषांतक अर्थात् षिको नाश करनेवाला होता है। इसलिए वह सर्वथा त्याज्य नहीं है । क्यों कि उसे स्पर्श करनेवालेको यह मारता नहीं है । यदि उसे मंत्र व औषध के प्रयोगसे उपयोग किया जाय तो उससे कोई हानि नहीं है अर्थात् मरण नहीं हो सकता है। इसी प्रकारं विषोदरचिकित्सा प्रतिपादन किया गया है कि कठिन भयंकर विषोंका सेवन करना भी कभी कभी औषध होता है। जैसे काकोदनी,अश्वमारक, गुंजामूल कल्क को देने का विधान मिलता है। ईखके टुकडोंको कृष्णसर्पसे दंश कराकर भक्षण करना चाहिये । मूलज वा कंदज विषको सेवन करना चाहिये जिससे वह निरोगी होता है, इस प्रकार विनोदरी विषका भी सेवन करें तो वह अविषात्मक होकर वह अत्यंतसुख के लिये कारण होता है । शास्त्रोमें भी विषका विष ही औषध के रूप में प्रतिपादित है । चरक संहिताके विषचिकित्साप्रकरणमें कहा भी है। जंगम विषकी गति नीचेकी ओर होती है। और मूलज विषकी गति ऊपरकी ओर होती है । इस लिए दंष्ट्रिविष मूलविषका नाश करता है और मूलज विष दंष्ट्रिविषका नाश करता है । इसीप्रकार अग्नि भी अग्निविषके लिए औषधि के रूपमें उपयुक्त होती है। जहांपर घाव हो गई हो एवं बंधनक्रिया अशक्य हो, वहापर कृश अग्निसे जलाना एवं उष्ण औपनिका उपयोग करना एवं च घावको उकेर कर पुनः जलाना, आदि प्रयोग करना,
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