Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur

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Page 812
________________ अथ हिताहिताध्यायः। ............................... रसेषु न भवन्त्येते निर्गुणास्तु गुणाःस्मृताः । . १ द्रव्याव्यं तु यस्माच्च विधौ वीर्य तु षड्रसाः । द्रव्यं श्रेष्ठमतो ज्ञेयं शेषा भावास्तदाश्रयाः ॥ .... इत्येवमाद्यनेकश्लोकसमूहस्य सकाशे पदेशकाशेषविशेषद्रव्यगुणात्मकवस्तुस्वरूपनिरूपणं स्याद्वादवादमेवश्रित्य स्वशास्त्रं स्वयमभिमतस्याद्वादस्थितिरेव तावत्। नानाचार्यः । तस्माग्जिनेंद्रप्रणीतप्रमाणत उक्तं तस्मात्तदभिमतदुर्मतैकांतवादं परित्यज्य विवक्षितस्वरूपानेकधर्माधिष्ठितानेकवस्तुतत्वप्रतिपादनपरं प्राणावायमहागमांभोनिधेरंभोनिधलक्ष्मीरिव सकललोकहिताद्वैद्यांनबद्यविद्यानिर्गतिविद्याद्वेधैरप्यद्यापि सद्योमुदितहृदयैरत्यादराद्गृह्यते ॥ ततो जिन रतिमुखकमल विनिर्गतपरमागमत्वादतिकरुणात्मकत्वात्सर्वजीवदयापरत्वादिति केचिज्जलूकाबसाधने कदंबकात्रिवर्णाष्टदशांगुलशारिकानामजलूकासह्यपदास्वस्थेति तिर्यग्यनुष्यसंसाराणां चिकित्सा विधायित्वात्तथा वैधेनाप्येवंविधन सुमनसा कल्याणाभिव्यवहारेण बंधुभूतेन भूतानां सहायवतो विशिखानुचकितयोतिवैद्याचार निरूपणचिकित्साभिधानेपि सत्यधर्मपरेण प्रमोद कारुण्यपि क्षमालक्षणप्रज्ञाज्ञान विज्ञानाद्यमेकगुणगणोपेतेन वैद्येन पुरुषविशेषापेक्षाक्षत यथार्ह प्रतिपत्तिक्रियायां चिकित्सा विधीयते इति तत्कथं क्रियते इति चेत् । इसी प्रकार कोई एकांतवादी द्रव्य रस वीर्य विपाकको पृथक्त्वरूपसे स्वादु, अम्ल व कटुक रूपसे स्वीकार करते हैं, यह अत्यंत दूषणास्पद है । ऐसी हालतमें द्रव्यरस एवं वीर्यरूप स्निग्ध तीदण, पिछिल, मृदुत्व, रूक्ष, उष्ण, शीत, निर्मलता ये वीर्य विपाकसे भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हो तो गोविषाणके समान पृथक् देखनेमें आवेंगे। यदि अभिन्न हो तो ये सब इंद्र शक पुरंदरादि शब्दोंके समान एक ही पदार्थ के पर्यायवाची शब्द्ध ठहर जायेंगे । इसलिये द्रव्य रस वीर्य विपाकात्मक ही वस्तुतत्व होनेसे एवं उनके द्रव्यसे कथंचित् भेदाभेद स्वरूप होनेसे, उनका निरूपण अत्यंत विस्तृत है। अतएव उसे यहांपर उपसंहार कर इतना ही कहा जाता है कि प्रत्यक्षानुमान प्रमाणसे अविरुद्ध रूपसे रहनेवाले, द्रव्य, क्षेत्र काल, भावके सान्निध्यसे, पदार्थोमें अस्तित्व नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्वानेकत्व, वक्तव्यावक्तव्यादि परस्परविरुद्ध अपितु सापेक्ष स्वरूपके अनंत धर्म रहते हैं। उसीप्रकार द्रव्यरस विर्यविपाकादि भी अविरोधरूपसे-रहते हैं । इसी स्याद्वादवादको अवलंबन कर वैधशास्त्राचार्य सुश्रुत भी कहते हैं। उपर प्रति गदित द्रव्यरस वीर्यविपाक का पृथक्त इन में भिन्नता माननेवाले एकांतवादियों का मत है । परंतु जो वस्तुतत्व के रहस्यज्ञ विद्वान् हैं वे किसी १ व्ये द्रव्याणि यस्माद्ध विपच्यते न षड्रसाः ॥ इति मुद्रितसुश्रुतसहिताम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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