________________
कल्याणकारके
पभस्मचतुर्गुणांभासि ततः पादावशेषीकृतैः । तत्पादामल सद्गुडैः परिपचेन्नातिद्रवं फाणितम् ॥ ४१ ॥ तस्मिन्सत्रिकटुत्रिजातकघनान् संचूर्ण्य पादांशतो। दत्वा मिश्रितमेतदुक्तकृत संस्कारे घटे स्थापितं ॥ सद्धान्ये कलशं निधाय पिहितं मासोध्दृतं तं नरः ।
संभक्ष्याक्षयरोगवल्लभगणान् जित्वा चिरं जीवति ॥४२॥ भावार्थ:-सालमखाना, ईख, मूसली, तिलजा (तिलवासिनी शाली-तिल जिसके अंदर रहता है वह धान )चिराचिरा, सम्हालू, ला, आक, कमल, एरंडवृक्ष, चीता तिल, इन प्रसिद्ध औषधियों को जलाकर भस्म करके उसे ( भरम से.) चौगुना पानीमें घोलकर छानें । फिर उस क्षार जल को मंदाग्निसे पकाकर जब चौथाई पानी शेष रहे तो उस में [ उस पानी से ) चौथाई गुड मिलाये । फिर इतनी देरतक पकाये कि वह फोणित के समान न अधिक गाढ़ा हो और न पतला हो। पश्चात् उस में सोंठ, मिरच, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागरमोथा, इनको समभाग लेकर सूक्ष्मचूर्ण करके चतुर्थांश प्रमाण में मिलावे । इस प्रकार सिद्ध औषधि को पूर्वोक्तकमसे संस्कृत घडे में भरकर, मुख को बंद कर धान्यराशि में गाढ दें। एक महीने के बाद उसे निकालकर विधिप्रकार सेवन करे तो असाध्य बडे २ रोगों को भी जीतकर चिरकाल तक जीता है ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
.. चित्रककल्प. ' शुद्धं चित्रकमूलमुक्तविधिना निष्काथ्य तस्मिन्कषा- । ये दग्ध्वा सहसा क्षिपेदमलिना सच्छर्करा शंखना-11 . भीरप्याशु विगाल्य फाणितयुतं शीतीकृतं सर्वग-। न्धद्रव्यैरपि मिश्रित सुविहितं सम्यग्घटे संस्कृते ॥४३॥ तद्धान्य निहितं समुदतमतो मासात्सुगंधं सुरू-। पं सुस्वादु समस्तरोगनिवप्रध्वंसिसौख्यास्पदं ॥ एवं चित्रकसद्रसायनवरं पीत्वा नरस्संततं । यक्ष्माण क्षपयेदनूनबलमत्यास सर्वान्गदान् ॥ ४४ ॥ १ इक्षोः रसस्तु यः पक्कः किंचिदगाढो वहुद्रयः।
स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंशया ॥ ईन्ख का रस को इतना पकावे कि वह थोडा गाढा हो ज्यादा पतला है। इसे फाणित कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org