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कल्याणकारके
भावार्थ:-वात के प्रकोप से जब शरीर में सुई चुभने जैसी [भयंकर पांडा हो, मर्मस्थानों में भी अत्यंत पीडा हो, भयंकर व दुष्ट विछू से कटे हुए मनुष्य के समान अत्यधिक वेदना (दर्द) से प्रतिक्षण व्याकुलित हो तो समझना चाहिये कि ग्रह तीन दिन तक ही जीता है ॥ २४ ॥
द्विरात्रिकमरणचिन्ह. जलैस्सुशीतहिमशीतलोपमैः प्रसिच्यतो यस्य न रोमहर्षः । न वेत्ति यस्सर्वशरीरसकियां नरो न जीवविदिनात्परं सः॥ २५ ॥
भावार्थ:-बरफ के समान अत्यंत ठण्डे जल से संचन करने पर भी जिसे रोमांच नहीं होता है और जो अपने शरीर की सर्वक्रियावोंका अनुभव नहीं करता हो, वह दो दिन से अधिक जी नही सकता है ।। २५ ।।
एकरात्रिकमरणचिन्ह. श्रृणोति योप्येव समुद्रघोषमप्यपांगगं ज्योतिरतिपयत्नतः । यथा न पश्येदथवा न नासिका नरश्च जीवेदिवस न चापरम् ॥ २५ ॥
भावार्थ-जिसे समुदघोष नहीं सुनाई देता हो, अत्यंत प्रयत्न करनेपर भी आंख के कोये की ज्योति घ नाक का अग्रभाग भी नहीं दिखता हो, वह एक ही दिन जाता है। इस से अधिक नहीं ॥२६॥
वैवार्षिकआदिमरणचिन्ह. पादं जंघां स्वजानूरुकटिकुक्षिगलांस्त्वलं । हस्तबाबांसवाऽगं शिरश्च क्रमतो यदा ॥ २७ ॥ न पश्येदात्मनच्छायां क्रमान्त्रिद्येकवत्सरं । मासान्दश तथा सप्तचतुरेकान्स जीवति ॥ २८ ॥ तथा पक्षाष्टसत्त्रीणि दिनान्येकाधिकान्याप।
जीवेदिति नरो मत्वा त्यजेदात्मपरिग्रहम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:-जिस मनुष्य को अपना पाद नहीं दिखें तो वह तीन वर्ष, जंघा नहीं दीखे तो दो वर्ष, जानु ( घुटना ) नहीं दीखे तो एक वर्ष, उरु ( साथल ) नहीं
१ कान के छिद्रों को अंगुलियोंमे ढकनेपर जो एक जाति का शब्द सुनाई देता है उसे समुद्रघोष कहते हैं ॥
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