Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur

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Page 793
________________ (७००) कल्याणकारके भावार्थ:-जिन के फल प्रत्यक्ष में प्रकट हैं अर्थात् अनुभूत हैं, जो दुनिया में भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं, और सिद्धांत के पारगामी आचार्यों द्वारा प्रतिपादित हैं ऐसे पूर्वोक्त औषधयोगों को जानकर विधि व यत्नपूर्वक जो मनुष्य उपयोग (सेवन ) करते हैं वे सम्पूर्ण वैरियों को दुर्जेय होते हैं अर्थात् विशिष्ट बलशाली होने से उन्हे कोई भी वैरी जीत नहीं सकते ॥ ४७ ॥ इति तद्धितं रसरसायनक परमौषधान्यलं । शास्त्रविहितविधिनात्र नरास्समुपेत्य नित्यमुखिनो भवंति ते ॥ . अथ चोक्तयुक्तविधिनात्र सदसद्वस्तुवैदिना सत्यमिति । किमुत संकथनीयमशेषमस्ति सततं निषेव्यताम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त, मनुष्यों को हितकारक रस, रसायन व विशिष्ट औषधियों को प्रतिनित्य शास्त्रोक्त विधि से सेवन करे तो मनुष्य नित्य सुखी हो जाते हैं । ( इन औषधियोंके गुणोंकी प्रमाणता के लिये ) पूर्वोक्त कथन. सब सत्य ही है असत्य नहीं है यह कहने की क्या आवश्यकता है ? असली व नकली वस्तुओंको जानने वाले बुद्धिमान् मनुष्य इन सब रसायन आदिकों को पूर्वोक्तविधि के अनुसार हमेशा ( विचारपूर्वक ) सेवन करें और देखें कि वे कैसे प्रभाव करते है ? तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त योगों के बारे में यह गुण करता है कि नहीं ऐसी शंका करने की जरूरत नहीं है। निःशंक होकर सेवन करे । गुण अवश्य दिखेगा ॥४८॥ नगरी यथा नगरमात्मपरिकरसमस्तसाधनैः। . . रक्षति च रिपुभयारनूनां तनुमुक्तभेषजगणैस्तथामयात् ॥ इदमौषधाचरणमत्र सुकृतीजनयोग्यमन्यथा । धर्मसुखनिलयदेहगणः प्रलयं प्रयाति बहुदोषदूषितः ॥४९॥ भावार्थ:-जिस प्रकार नगर के अधिपति [ राजा ] अपनी सेना शस्त्र अब आदि समस्त साधनों से नगर को शत्रुओं के भयसे रक्षा करता है उसी प्रकार शरीर के स्वामी [ मनुष्य ] औषध समूह रूपी साधनों द्वारा रोगरूपी शत्रुओं के भयसे शरीर की रक्षा करे । यदि वह पुण्यात्मा मनुष्यों के योग्य र हांपर [ इस संहिता में ] कहे हुए औषध व आचरण का सेग्न न करके अन्यथा प्रवृत्ति करे तो धर्म व सुख के लिये आश्रयभूत यह शरीर अत्यंत कुपित दोषों से दूषित होकर नष्ट हो जायगा ॥४९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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